बुधवार, 16 जनवरी 2019

ईश्वर का निवास हृदय

उपनिषदों, गीता और पुराणों का कथन है कि ईश्वर का परिमाण अंगुष्ठ मात्र है तथा वह हमारे हृदय में निवास करता है। उसका साक्षात्कार के लिए बाहर कहीं भी भटकने की आवश्यकता नहीं है। अपने अन्तस् में जो झाँक लेता है, उसे वह वहीं मिल जाता है। अपने अन्तस् में झाँकना ही सबसे कठिन कार्य है। उसके लिए स्वयं को साधना पड़ता है। यम-नियम आदि का पालन करना होता है। यह तप मनुष्य कर नहीं पाते, इसलिए मालिक से उनका साक्षात्कार नहीं हो पाता।
        इस विषय में एक बहुत ही रोचक बोधकथा कुछ दिन पूर्व पढ़ी थी। पसन्द आई, आप सबसे साझा करने की इच्छा हुई। कहते हैं इस सुन्दर सृष्टि की रचना करने के उपरान्त भगवान दुविधा में पड़ गए। जब भी कोई मनुष्य मुसीबत में घिर जाता है, तभी वह उनके पास भागा-भागा आता है और अपनी परेशानियाँ उन्हें सुनाता है। सब कुछ लेने के बाद भी मनुष्य को सन्तोष नहीं, वह हर समय प्रभु से कुछ-न-कुछ माँगता ही रहता है।
         अन्तत: उन्होंने इस समस्या का निराकरण करने के लिए देवताओं की एक बैठक बुलाई और कहा, "देवताओं, मैं मनुष्य की रचना करके कष्ट में पड़ गया हूँ। कोई-न-कोई मनुष्य हर समय मुझसे शिकायत ही करता रहता हैं। मै सब मनुष्यों को उनके कर्मानुसार सब कुछ दे रहा हूँ। फिर भी जरा-सा कष्ट होने पर इन्सान मेरे पास भाग चला आता है। इससे न तो मैं कहीं शान्तिपूर्वक निवास कर सकता हूँ और न ही तपस्या में लीन हो सकता हूँ। आप लोग कृपया मुझे ऐसा स्थान सुझाएँ, जहाँ मनुष्य नाम का यह प्राणी कभी मेरे पास पहुँच न सके।"
         प्रभु के विचारों का आदर करते हुए सभी देवताओं ने अपने-अपने विचार प्रकट किए। सूर्यदेव बोले, "प्रभु, आप हिमालय पर्वत की चोटी पर चले जाएँ।"   
       भगवान ने कहा, "यह स्थान तो मनुष्य की पहुँच में हैं। उसे वहाँ तक पहुँचने में अधिक  समय नहीं लगेगा।"
       इन्द्रदेव ने सलाह दी, "आप किसी महासागर में निवास करें।"
       भगवान बोले, "वहाँ पर आवागमन करता हुआ मनुष्य नित्य पहुँचा करेगा।"
      वरुणदेव ने परामर्श दिया, "आप अंतरिक्ष में चले जाइए।"
         भगवान ने कहा, "एक दिन मनुष्य वहाँ भी अवश्य पहुँच जाएगा।"
        अब भगवान निराश होने लगे थे। वे अपने मन-ही-मन सोचने लगे, “क्या मेरे लिए कोई भी ऐसा गुप्त स्थान नहीं हैं, जहाँ मैं शांतिपूर्वक रह सकूँ।"
         अन्त में गणेशजी भगवान से बोले, "प्रभु! आप मनुष्य के हृदय में ही जाकर विराजमान हो जाइए। मनुष्य आपको स्थान-स्थान पर ढूंढने में ही सदा उलझा रहेगा। वह अपने हृदय में आपकी तलाश कदापि नहीं करेगा।"
        भगवान को गणेशजी की सलाह बहुत पसन्द आई। उन्होंने ऐसा ही किया और उन्होंने मनुष्य के हृदय में अपना निवास बना लिया।
         उस दिन से आज तक मनुष्य अपने दुखों और परेशानियों को व्यक्त करने के लिए भगवान को मन्दिर, तीर्थस्थल, ऊपर-नीचे, आकाश-पाताल, जंगल, पर्वत सर्वत्र ही ढूंढ रहा है, पर वे हैं कि कहीं भी नहीं मिल रहे हैं। मनुष्य कभी भी अपने भीतर यानी 'हृदय रूपी मंदिर' में बैठे हुए भगवान को नहीं देख पाता। इसीलिए वह इधर-उधर भटकता रहता है। इसी चक्कर में वह तथाकथित धर्मगुरुओं, तान्त्रिकों, मन्त्रिकों आदि के जाल में फँसकर अपना धन तथा समय बर्बाद करता है, अपना जीवन नरक बना लेता है। जब चेतता है तो बहुत देर हो गयी होती है।
         मनुष्य को शान्तचित्त होकर प्रभु का स्मरण करते हुए ध्यान लगाना चाहिए। अपने हृदय में विद्यमान परमेश्वर को खोजने का प्रयास करना चाहिए। अपने कर्मों और विचारों की शुचिता पर उसका ध्यान देना आवश्यक होता है। जब मनुष्य का अन्त:करण शुद्ध और पवित्र होता है, तभी ईश्वर की प्राप्ति की ओर उसका कदम बढ़ता है। वह मालिक हमारे ही भीतर छिपकर बैठा हमारी प्रतीक्षा करता है। आवश्यकता है तो उसे अपने अन्तस् में ही खोजने की है।
चन्द्र प्रभा सूद
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