रविवार, 20 जनवरी 2019

मालिक की कृपा

मनुष्य को सदा ही किसी मित्र, किसी गुरु अथवा किसी सहयोगी की आवश्यकता होती है। किसी पर आश्रित न होना बहुत अच्छी बात है, लेकिन उसकी अति कभी नहीं होनी चाहिए। यह संसार कीचड़ की तरह है यानी काम-वासनाओं का दलदल यहाँ पर विद्यमान है। इसमें मनुष्य को कमल की तरह रहना चाहिए। दूसरे शब्दों में कहें तो उसे संसार में रहते हुए इनमें लिप्त नहीं होना चाहिए। मनुष्य का यह संघर्ष उसके अपने अस्तित्व की लड़ाई के लिए ही होता है।
       कुछ दिन पूर्व पढ़ी एक बोधकथा का स्मरण हो रहा है। कुछ संशोधन के साथ उसे प्रस्तुत कर रही हूँ। एक गाय घास चरने के लिए पास ही के जंगल में चली गई। शाम ढलने वाली थी, उसे अपने बाड़े में आने की जल्दी थी। तभी उसने देखा कि एक बाघ उसकी ओर दबे पाँव बढ़ रहा है। वह डर के कारण इधर-उधर भागने लगी। बाघ भी उसके पीछे-पीछे दौड़ने लगा। दौड़ते हुए गाय को अपने सामने एक तालाब दिखाई दिया। घबराहट के कारण गाय उस तालाब के अन्दर घुस गई। उसका पीछा करता हुआ वह बाघ भी उस तालाब के अन्दर चला गया।
        वह तालाब बहुत गहरा नहीं था। उसमें पानी कम था और कीचड़ से भरा हुआ था। उन दोनों के बीच की दूरी काफी कम हो गई थी। लेकिन अब वे दोनों कुछ भी नहीं कर पा रहे थे। गाय उस कीचड़ के अन्दर धीरे-धीरे धसने लगी। बाघ उसके पास होते हुए भी उसे पकड़ नहीं सका। वह भी धीरे-धीरे कीचड़ में धसने लगा। दोनों करीब-करीब गले तक उस कीचड़ के अन्दर फँस गए थे और हिल भी नहीं पा रहे थे। गाय के करीब होने के बावजूद वह बाघ उसे पकड़ नहीं पा रहा था। थोड़ी देर बाद गाय ने उस बाघ से पूछ ही लिया, "बाघ, क्या तुम्हारा कोई मालिक है?"  
        बाघ ने गुर्राते हुए कहा, "मैं जंगल का राजा हूँ। मेरा कोई मालिक नहीं। मैं स्वयं ही जंगल का मालिक हूँ।"
       गाय ने कहा, "लेकिन तुम्हारी उस शक्ति का यहाँ पर क्या उपयोग है?"
       उस बाघ ने कहा, 'तुम भी तो फँस गई हो और मरने के करीब हो। तुम्हारी भी तो हालत मेरे जैसी है।"
        गाय ने मुस्कुराते हुए बाघ से कहा, "बिलकुल नहीं। मेरा मालिक जब शाम को घर आएगा और मुझे अपने बाड़े में नहीं पाएगा तो वह ढूंढते हुए यहाँ अवश्य आएगा। तब वह मुझे इस कीचड़ से निकालकर अपने घर ले जाएगा। तुम्हें लेने कौन जाएगा?"
         थोड़ी देर ही में उस गाय का मालिक वहाँ आया और गाय को कीचड़ से निकालकर अपने घर ले गया। जाते समय गाय और उसका मालिक दोनों एक दूसरे की तरफ कृतज्ञतापूर्वक देख रहे थे। चाहते हुए भी उन्होंने उस बाघ को कीचड़ से नहीं निकाला क्योंकि वह बाघ उनकी जान के लिए बहुत बड़ा खतरा था।
        इस बोधकथा में आया हुआ बाघ मनुष्य के अहंकारी मन का प्रतीक है, गाय समर्पित ह्रदय का प्रतीक है और मालिक ईश्वर का रूप है।
         मनुष्य सदा अहंकार के नशे में चूर रहता है। उसे अपने सामने कुछ भी दिखाई नहीं देता। वह समझता है कि उसके समक्ष सारी दुनिया बौनी है। वह जो भी चाहे कर सकता है। किसी की क्या मजाल जो उसका सामना कर सके? और यदि कोई उसका सामना करने का दुस्साहस करता है तो वह तिलमिला जाता है। उसे धूल में मिलने के लिए उपाय करने लगता है। जब तक उसका प्रतिशोध पूर्ण नहीं हो जाता, तब तक वह चैन से नहीं बैठ पाता।
       गाय सरल ह्रदय का प्रतीक है। वह किसी का अहित नहीं करती। वह सबको अपना अमृत तुल्य दूध पिलाकर जीवन देती है। उसके दूध से बने घी मक्खन, छाछ आदि सभी को पुष्ट करते हैं। उसका गोबर तक उपयोगी होता है, जो कई दवाइयों में काम आता है। इसीलिए हमारी भरतीय संस्कृति में गाय को माता कहकर उसे सम्मानित किया जाता है।
       मालिक मनुष्य को हर दुख और परेशानी से बचाता है। वह बिना किसी अपेक्षा के हम मनुष्यों का उद्धार करता है। बिन माँगे झोलियाँ भर-भरकर देता है। समदर्शी वह सबके साथ समानता का व्यवहार करता है। वह परम न्यायकारी है तथा वह किसी को भी अनावश्यक दण्ड नहीं देता। जो भी व्यक्ति सच्चे मन से, श्रद्धा से उसकी शरण में चला जाता है, उसका इहलोक और परलोक दोनों ही संवर जाते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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