रविवार, 6 जनवरी 2019

हितचिन्तक

मनुष्य के सबसे बड़े हितचिन्तक इस संसार में उसके अपने माता-पिता होते हैं, जो उसे इस दुनिया में लाने का दायित्व निभाते हैं।वे अपनी सन्तान का यथासम्भव सही मार्गदर्शन करते हैं। अपनी सन्तान को वे इतना योग्य बनाते हैं, तभी तो वह अपने इस जीवन को सुचारू रूप से चला पाता है। वे स्वयं अभावों में रह लेते हैं, पर अपनी सन्तान के लिए सभी प्रकार के सुख जुटाने का प्रयास करते हैं। खुद भूखे रहकर या आधी रोटी खाकर वे जी लेते हैं पर अपने बच्चों का पेट भरते हैं। मेरे विचार में ऐसे निःस्वार्थ माता-पिता से बढ़कर एक मनुष्य का हितसाधक कोई और नहीं हो सकता।
          एक सन्मित्र भी मनुष्य का हितसाधक होता है। वह माता की तरह मित्र की रक्षा करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि मित्र कुमार्गगामी बनने लगे तो वह उसे उस रास्ते पर नहीं जाने देता। पिता की तरह उसे डाँटने से भी नहीं चूकता। वह हर सम्भव प्रयास करता है कि उसका मित्र बुरी संगति से बचे। अपने जीवन में सदा सफलता प्राप्त करे। वह उसकी उन्नति में प्रसन्न होता है। उसके सुख में सुखी होता है और उसके दुख में उदास हो जाता है। ऐसा मित्र बड़े भाग्य से मनुष्य को मिलता है। यदि ऐसे मित्र रूपी अमूल्य हीरा किसी को मिल जाए तो उसे सम्हालकर रखना चाहिए।
          'हितोपदेशम्' पुस्तक में नारायण पण्डित ने कहा है-
      माता मित्रं पिता चेति स्वभावात् त्रयं हितम्।
      कार्यकारणातश्चान्ये    भवन्ति   हितबुद्धय:।।
अर्थात्  माता, पिता और मित्र स्वभाव से कहने के लिए तीन होते हैं। परन्तु वास्तव में ये तीनों एक ही होते हैं। ये तीनों ही अपने कार्यों से हमेशा ही मनुष्य का हित करते है।
        जब मनुष्य के समक्ष कोई विशेष कार्य या विशेष परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है, तब ये तीनो ही उसे उचित दिशा निर्देश देते हैं यानी सही मार्ग दिखाते हैं अथवा सही बुद्धि देते है। जो कार्य उसके हित में होता है, उसके लिए सदा उसे प्रेरित करते हैं। दुनिया के शेष सभी लोग अपने स्वार्थ के कारण ही उसका साथ देते हैं। उस समय मनुष्य को लगता है कि वे सभी उसके शुभचिन्तक हैं। वास्तव में वे लोग अपना स्वार्थ पूर्ण होने तक ही साथी होते हैं। उस समय वे तारीफ भी करते हैं, आगे-पीछे भी घूमते हैं, उपहार भी लेकर आते हैं।
          जब इन स्वार्थियों का स्वार्थ सिद्ध हो जाता है, तब सामने पड़ने पर वे नजरें मिलाने के स्थान पर कन्नी काटकर निकल जाते हैं। अपने उपकार कर्ता को मूर्ख बनाकर या समझकर प्रसन्न होते हैं। उस समय उनकी दोस्ती या रिश्तेदारी सब धरी रह जाती है, समाप्त हो जाती है। मनुष्य आश्चर्यचकित होकर उनके उस अपमानजनक रूखे व्यवहार को बस मूक दर्शक बना देखता रह जाता है। तब उसे दुख होता है कि वह इन धूर्तों को समय रहते क्यों नहीं पहचान सका? वह कैसे उन शठों के जाल में फँस गया?
        मनीषी इसीलिए समझाते हैं कि मनुष्य को पारखी बनना चाहिए। उसे नीर-क्षीर विवेकी होना चाहिए। उसे लोगों को परखने की समझ आनी चाहिए, अन्यथा उसे मूर्ख बनाने वालों की इस संसार में कोई कमी नहीं है। कदम-कदम पर उसे ठगने या कुमार्गगामी बनाने के लिए लोग तैयार बैठे रहते हैं। उन सबसे बचते हुए ही मनुष्य को निरन्तर आगे बढ़ना होता है। यही वह समय होता है जब उसे अपने हितचिन्तकों के मार्गदर्शन की महती आवश्यकता होती है।
          मैं फिर यहाँ कहना चाहती हूँ कि ये सभी हितचिन्तक उसके माता, पिता और सद् मित्र होते हैं। माता-पिता के द्वारा दिए गए संस्कार और उनके द्वारा सिखाया गया अनुशासन ही मनुष्य की सबसे बड़ी पूँजी होते है। अपने मित्र का सौहार्दपूर्ण और प्रेरित करने वाला व्यवहार उसे किसी भी प्रकार के जीवनोपयोगी कार्य करने की प्रेरणा देते हैं। इन तीनों के प्रति मनुष्य का व्यवहार सहृदयतापूर्ण होना चाहिए। मनुष्य को यह बात सदा स्मरण रखनी चाहिए कि इन पर विश्वास करने से उसके जीवन का कभी अहित नहीं हो सकता। वे उसके मार्ग में कभी रोड़ा अटकाने का कार्य कर ही नहीं सकते। अतः मनुष्य को कभी उनका तिरस्कार नहीं करना चाहिए और न ही ऐसा कोई व्यवहार करना चाहिए, जिससे उनके मन को कष्ट हो।
चन्द्र प्रभा सूद
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