सोमवार, 14 जनवरी 2019

उन्नीस का फेर

प्रत्येक मनुष्य के पास पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (आँख, नाक, कान, जिह्वा और त्वक्), पाँच कर्मेन्द्रियाँ (हाथ, पैर, मुख, गुदा और उपस्थ), पाँच प्राण (प्राण, अपान, व्यान, समान और उदान) तथा अंतःकरण चतुष्टय (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) होते हैं। कुल मिलाकर ये सब उन्नीस हो जाते हैं। मनुष्य अपना सारा जीवन इन्हीं के चक्कर में उलझा रहता है। इनको बाँटने के प्रयास में लगा रहता है। न वह ज्ञानेन्द्रियाँ को नियन्त्रित कर पाता है और न ही कर्मेन्द्रियाँ को वश में कर पाता है। प्राणों पर तो उसका वश नहीं चलता, पर मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार भी उसे भटकाते रहते हैं।
         इन उन्नीस में जब आत्मा को मिलाया जाता है, तब वे बीस बन जाते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जब आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति मनुष्य को हो जाती है, तब वह इन सबको साधने में सफल हो पाता है। जब इन्हें वश में कर लेता है, तब मनुष्य को चिरन्तन सुख, शान्ति, सन्तोष एवं आनन्द की प्राप्ति होती है।
         इस विषय पर एक बोध कथा स्मरण आ रही है। इसे शायद बहुत से लोगों ने पढ़ा होगा। कहते हैं एक गाँव में एक बहुत बुद्धिमान व्यक्ति रहता था। उसके पास उन्नीस ऊँट थे। उसकी मृत्यु के पश्चात जब वसीयत पढ़ी गयी तो उसमें लिखा हुआ था कि मेरे उन्नीस ऊँटों में से आधे ऊँट मेरे बेटे को दे दिए जाएँ। उनका एक चौथाई भाग मेरी बेटी को सौंप दिए जाए। उनका पाँचवाँ भाग मेरे नौकर को दिया जाए। इस अनोखी वसीयत को पढ़कर सब लोग चक्कर में पड़ गए कि यह बँटवारा किस प्रकार सम्भव हो सकेगा ?
         उन्नीस ऊँटों को आधा बाँटने के लिए तो एक ऊँट काटना पड़ेगा। ऐसा करने पर वह बेचारा ऊँट मर जायेगा। मान लो एक ऊँट को काट भी दिया जाए, तब बचे हुए ऊँटों का एक चौथाई साढ़े चार होगा। तब एक ओर ऊँट को क्या काटना पड़ेगा? इस तरह बटवारा करने के लिए कितने ऊँट काटे जाएँगे?
          उस वसीयत के अनुसार ऊँटों का बटवारा करना असम्भव था। सब लोग बड़ी उलझन में थे। उस समय किसी ने परामर्श दिया कि पड़ोस के गाँव से एक बुद्धिमान व्यक्ति रहता है। उसे परामर्श के लिए बुला लेते हैं। सबको उस व्यक्ति की यह सलाह पसन्द आ गयी। उस बुद्धिमान व्यक्ति को बुलाया गया। वह अपने ऊँट पर चढ़कर वहाँ आया। उसने वसीयत के बटवारे वाली समस्या को सुना। उस पर अपना दिमाग लगाया और कहा कि इन उन्नीस ऊँटों में यह मेरा एक ऊँट मिलाकर बटवारा कर लेते हैं।
           सब सोचने लगे कि पहले तो वह पागल इन्सान था, जो बेसिरपैर की वसीयत करके परलोक सिधार गया। अब यह दूसरा पागल हमारे बीच आ गया है, जो इन ऊँटों में अपना ऊँट मिलाकर बटवारा करना चाहता है। उसकी सलाह मानने के अतिरिक्त उनके पास और कोई चारा नहीं था। इसलिए सबने उसकी बात मान लेने में ही अपनी भलाई समझी। इस तरह उन्नीस ऊँट बटवारे वाले और एक सयाने का ऊँट मिलाकर, उनके पास कुल बीस ऊँट बन गए।
         अब उस वसीयत के अनुसार सुगमता से बटवारा कर दिया गया। यानी बीस के आधे दस ऊँट बेटे को दे दिए गए। बीस के चौथाई पाँच ऊँट बेटी को दे दिए गए। बीस का पाँचवाँ भाग चार ऊँट नौकर को दे दिए गए। इस प्रकार मिलाकर उन्नीस ऊँटों का बटवारा कर दिया गया। अब उस सयाने व्यक्ति का ही एक ऊँट बच गया था। इस प्रकार उन लोगों की समस्या को सुलझाकर, वह बुद्धिमान व्यक्ति अपना ऊँट लेकर, अपने गॉंव वापिस लौट गया।
         इसी प्रकार हम मनुष्य भी इन उन्नीस के फेर में पड़े हुए परेशान होते रहते हैं। इन्हें बाँट नहीं सकते, पर व्यर्थ ही प्रयास करते रहते हैं। उस प्रयास में अपना सारा जीवन नरक बना लेते हैं। हमारी कर्मेन्द्रियाँ हमें सदा भटकाती रहती हैं। दुनिया के आकर्षणों की ओर घसीटकर ले जाती हैं। कर्मेन्द्रियों की बात भी हम नहीं मानते। इसलिए उनके फेर में उलझकर रह जाते हैं। मन हमारे मोक्ष और बन्धन का कारण होता है। उसे यदि साध लिया जाए तो मोक्ष की प्राप्ति कर देता है। यदि इसके अनुसार चलने लगीं तो जन्म-जन्मान्तरों के फेर में मनुष्य फँसा रहता है।
         बुद्धि सदा उचित परामर्श देती है। परन्तु जब वही कुबुद्धि बन जाए तो मनुष्य को पतन के गर्त में गिरने से कोई नहीं बचा सकता। अहंकार उसे ले डूबता है। इसलिए इन उन्नीस को अपने ऊपर हावी होने देने से सदा ही कष्ट और परेशानियाँ बढ़ती हैं। इनका उपयोग अपनी आत्मोन्नति के लिए करना चाहिए। इन्हें आत्मा को उसके गन्तव्य तक पहुँचाने का माध्यम या साधन बनाना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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