शनिवार, 10 जनवरी 2015

व्यवहार से शत्रु व मित्र

मित्र और शत्रु हमें ईश्वर की ओर से उपहार में नहीं दिए जाते बल्कि इस संसार के आने के बाद हम स्वयं चुनते हैं। हम अपने आचार-व्यवहार से लोगों को अपना या पराया बनाते हैं।
       आचार्य चाणक्य ने कहते हैं कि न कोई किसी का मित्र है और न ही कोई किसी का शत्रु है। हम अपने व्यवहार से शत्रु और मित्र बनाते हैं-
         न क: कस्यचित् शत्रु: न क: कस्यचित् मित्रम्।
           व्यवहारेण जायन्ते मित्राणि रिपवस्तथा।।
        मित्र बनाना और मित्रता करना बहुत सरल है परंतु उनके साथ रिश्ते निभाना बहुत कठिन है। मित्रता तभी दूर तक साथ निभाती है जब तक उसमें दिखावा न हो और आपसी सामंजस्य बना रहे। मित्रता में किसी प्रकार के स्वार्थ की गुंजाइश नहीं होती। मित्रता ऊँच-नीच, जात-पात, अमीर-गरीब आदि किसी बंधन को नहीं मानती। भगवान कृष्ण और सुदामा की मित्रता से बढ़कर इसका उदाहरण और कोई नहीं हो सकता।
          हमारे स्वार्थ जब टकराते हैं तब वह मित्रता नहीं रहती व्यापार बन जाती है। ऐसी मित्रता स्थायी नहीं होती। जब स्वार्थ पूरे हो जाते हैं तब मित्रता टूट जाती है और तथाकथित मित्र एक-दूसरे के दुश्मन तक बन जाते हैं। उस समय वे एक-दूसरे का चेहरा तक नहीं देखना चाहते। यह तो मित्रता नहीं कहलाती और न ही उसकी कोई उपयोगिता होती है।
      मित्रता की परख विपत्ति के समर होती है। कहते हैं श्मशान के द्वार तक जो साथ निभाता है वास्तव में वही वास्तव में हमारा सच्चा मित्र कहलाता है। सही मायने में यही मित्र की पहचान होती है।
        कभी-कभी लोग दूसरे के धन-वैभव व उच्च पद के कारण मित्रता का प्रदर्शन करते हुए साथ जुड़ते हैं जैसे गुड़ के चारों ओर मक्खियाँ आती हैं। ऐसी जी हजूरी वाली स्वार्थपरक मित्रता अस्थायी होती है।
       शत्रु बनाना सबसे आसान है। हम अपनी स्वयं की गलतियों से लोगों को शत्रु बना बैठते हैं। हमारा झूठा अहम्, हमारा अविवेक, हमारा जनून ही हमारे शत्रु बनाता  है। हमें ज्ञात नहीं होता कि कब हम अपने शुभ चिन्तकों को नाराज कर देते हैं और अपने पैर खुद ही कुल्हाड़ी मार लेते हैं। एवंविध जाने-अनजाने हम अपने शत्रुओं की संख्या बढ़ाते रहते हैं।
       राजनीति में तो समीकरण नित्य प्रति बदलते रहते हैं। आज जो मित्र है पता नहीं कब वह अपना दल बदल कर दूसरे विरोधी दल में चला जाए। आज आँख बंद करके अपने नेता पर विश्वास करने वाला कल प्रतिपक्ष में जाकर पलक झपकते ही घोर विरोधी  बन  जाता है।
      राजनीतिक समीकरण आम जन की समझ से परे है। वहाँ शत्रु व मित्र की पहचान करना बहुत कठिन है। पता ही नहीं चलता कि कौन मित्र हैं और कौन शत्रु।
      इसका कारण है सत्तालोलुपता। सत्ता को पाने के लिए किसी भी बाप बनाया जा सकता है और  से विलग होने की स्थिति बनने अथवा होने पर ऐसी दुश्मनी का प्रदर्शन किया जाता है मानो उनमें सदियों से  शत्रुता है। जनता की आँखों में धूल झोंकते सभी राजनीतिज्ञ वास्तव में एक ही होते हैं।
        चाणक्य एक राजनीतिज्ञ थे इसलिए उनका यह कथन राजनीतिक शत्रुता और मित्रता पर सटीक है।
         हर मनुष्य को सोच-समझ कर व्यवहार करना चाहिए जिससे शत्रुओं की संख्या नगण्य हो। मित्रों का चुनाव सोच-समझ कर करना चाहिए। हमारे मित्रों की संख्या चाहे कम हो पर वे हमारे सच्चे व अच्छे मित्र हों।

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