सोमवार, 26 जनवरी 2015

वृद्धों का अकेलापन

अकेलापन मनुष्य के लिए अभिशाप होता है। सामाजिक प्राणी यह मनुष्य अकेला रहे इसकी कल्पना करना भी बहुत कठिन है। फिर भी सत्य है कि अनेकों लोग अकेले ही जीवन जीने के लिए विवश हैं। इसके कारणों की समीक्षा करनी पड़ेगी।
        अपने जीवन साथी की मृत्यु होने के कारण दूसरे साथी का अकेला हो जाना स्वाभाविक है। इस स्थिति में यदि घर-परिवार का या बच्चों का साथ मिल जाए तो वह सौभाग्यशाली होता है। जब कभी अपनों के बीच रहते हुए यदि अबोलापन हो या एक-दूसरे को स्वीकार अथवा समर्पण करने की भावना न हो तब भी मनुष्य अकेला हो जाता है।
       जिस घर में केवल बेटियाँ होती हैं वे विवाहोपरान्त अपने-अपने घर की जिम्मेदारियों व्यस्त हो जाती हैं तब अपने अकेले रह रहे माता या पिता को समय नहीं दे पातीं। ऐसे में उनको अकेले हो जाना पड़ता है।
        आज के इस भौतिक युग में रोजी-रोटी के चक्कर में बच्चे घर से दूर अपने शहर को छोड़कर दूसरे प्रदेश में नौकरी की मजबूरी में चले जाते हैं। विश्व की दूरी भी कम होने के कारण बच्चे अपने देश को छोड़कर दूसरे देश में चले जाते हैं। माता या पिता के पास अकेले रहने के अलावा चारा नहीं बचता क्योंकि बच्चे वापिस आ नहीं सकते और किन्हीं अपरिहार्य कारणों से माता या पिता वहाँ जा नहीं सकते तब भी अकेलापन नासूर बन जाता है।
        ऐसे भी भाग्यहीन परिवार भी हैं जहाँ पूर्वजन्म कृत कर्मों के फलस्वरूप वे जीवन में संतान का मुख नहीं देख पाते। संतान के अभाव में घर सूना-सा लगता है। अपने अहम के कारण या परिस्थितिवश किसी बच्चे को गोद भी नहीं लेते वे भी जीवन में अकेले रह जाते हैं। जब दोनों साथियों में से एक काल कवलित हो जाता है तो दूसरा साथी निपट अकेला रह जाता है।
         जीवन में यदि दुर्भाग्य की अधिकता हो तो इकलौते या एक से अधिक बच्चों की दुर्घटना में असमय मृत्यु हो जाती है तब माता या पिता में से जो पीछे बच जाता है अकेला रह जाता है।
        विधवा या विधुर का अकेलापन तो मजबूरी होती है परन्तु कुछ लोग अपनी इच्छा से भी अकेलेपन का चुनाव करते हैं। विवाह की आयु में अहंकारवश दूसरों में कमियाँ ढूँढ़ते रहते हैं। आयु बीत जाने पर निपट अकेले रह जाते हैं। उनके भाई-बहन जीवन में सेटल हो जाते हैं और अकेलापन उनका मित्र बन जाता है।
      घर-परिवार की जिम्मेदारियों को निपटाने में कुछ लोग व्यस्त रहते हैं। इसलिए अपने विवाह के प्रति उदासीन रहते हैं। जब दायित्वों से मुक्त होते हैं तब तक उनके विवाह की आयु बीत जाती है। अपने-अपने पारिवारों में सभी इतना व्यस्त हो जाते हैं कि अपने लिए बलिदान करने वाले के बारे में नहीं सोचते। इस प्रकार त्याग करने वाला सबके होते हुए अकेले रह जाता है।
      धन लोलुपता इतनी बढ़ गयी है कि मनुष्य स्वार्थ में अन्धा हो चुका है। कभी-कभी कुपुत्र माता-पिता की धन सम्पत्ति उनकी इच्छा से या धोखे से हथिया कर उन्हें घर से बेघर कर दरबदर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ देते हैं।
       कुछ लोग बिल्कुल अकेले हैं या भरापूरा परिवार होते हुए भी वे अकेलेपन का दंश झेल रहे हैं अथवा सामाजिक परिस्थितियों के वशीभूत होकर निपट अकेले हैं। वृद्धावस्था की मजबूरी के कारण घर से बाहर जाना कठिन हो जाता है तब न किसी से बातचीत और न ही कहीं आना-जाना।
         आप सभी सुधीजनों से मेरा अनुरोध है कि जहाँ तक हो सके अपने बच्चों को संस्कारी बनाने के साथ-साथ अन्यों को भी माता-पिता की सेवा करने की प्रेरणा दें। हम सभी यदि अपने इस सामाजिक दायित्व का निर्वहण करते हुए इस समस्या से बचा जा सके।

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