मंगलवार, 20 जनवरी 2015

रचनाधर्मिता

लेखन साधना है जिसे साधकर लेखक या कवि दिशादर्शन का कार्य करता है। रचनाकार को अपना कदम फूँक-फूँक कर रखना चाहिए। जो जितनी साधना करेगा वह उतना ही महान रचनाकार होता है। युगों-युगों तक उसका नाम इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाता है।
       साधना शब्द का मैंने प्रयोग किया है जिसका तात्पर्य है कि रचनाकार को अधिक से अधिक स्वाध्याय करना चाहिए। अपने सद् ग्रन्थों व पुरातन रचनाकारों की रचनाओं के साथ साथ समकालीन लेखकों का गहनता से अध्ययन करना चाहिए। यदि वह ऐसा करता है तो उसके साहित्य को पढ़ने वाले को आत्मिक संतोष मिलता है।
       डाकू वाल्मीकि व महामूर्ख कहे जाते कालिदास विद्वानों की संगति में रहकर प्रकांड पंडित बने ये प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। वाल्मीकि ने घर-घर में पूजनीय भगवान राम का चरित्र लिखा। महाकवि बनकर कालिदास ने कालजयी ग्रन्थ लिखे जो विश्व की अनेकानेक भाषाओं में अनूदित हैं। गुरुकुल में ज्ञान न प्राप्त कर पाने पर घर जाते समय कुएं में रस्सी के निशान को देखकर परिश्रम का मंत्र लेकर बोपदेव ने अध्ययन किया। विद्वान बनकर इन्होंने व्याकरण की रचना की और महान बन गए। ये और अनेकों अन्य रचनाकार स्वाध्याय की बदौलत महान बने जिनका नाम हम श्रद्धा से लेते हैं।
     आज नवोदित लेखकों व कवियों में इतनी भी सहनशीलता नहीं है कि वे साहित्य साधना करें। वे अपने अतिरिक्त दूसरों को साहित्यकार नहीं मानते। न ही वे किसी अन्य की रचनाओं या पुस्तकों को पढ़ना ही चाहते हैं।
        काव्य लिखने वाले नवोदितों को प्रायः  छंद, अलंकार, लय, गति, यति व गेयात्मकता आदि के विषय में जानकारी ही नहीं है। उन्हें यह भी ज्ञान नहीं होता कि काव्य को समृद्ध कैसे बनाया जाता है? काव्य का भी अपना एक अनुशासन होता है जिसका पालन करना चाहिए। कुछ लोगों को पुस्तक छपवाने की जल्दी रहती है चाहे एक पुस्तक लायक रचनाएँ भी न हों। कभी-कभी ऐसा लगता है कि ये सभी लोग रातोंरात महाकवि की श्रेणी में आ जाएँगें।
    आज के रचनाकारों की साधना न होने के कारण बहुत से ऐसे हैं जो भाषा के प्रति संवेदनशील नहीं हैं। उनकी रचनाओं में लिंग, वचन की बहुधा अशुद्धियाँ मिलती हैं। उन्हें वर्तनी (spelling) का भी ज्ञान नहीं।
       गद्य लिखना पद्य से कठिन माना जाता है। गद्य को साहित्य का निकष माना जाता है। लेखकों का साहित्य भी तभी समृद्ध होता है जब उसमें लेखक की साधना की स्पष्ट झलक दिखाई देती है। काव्य की ही तरह गद्य का भी अपना अनुशासन होता है।
      एक-दूसरे का सामना होने पर प्रशंसा करना पर पीठ पीछे सबको गाली-गलौच करने से कोई साहित्यकार नहीं बन सकता। जो अच्छा मनुष्य नहीं बन सकता वह कदापि अच्छा लेखक नहीं हो सकता। दूसरों पर अपनी छाप छोड़ने के लिए रचनाकार का स्वयं का जीवन भी क्रियात्मक होना चाहिए।
      पीत पत्रकारिता की चर्चा सोशल नेटवर्क, पत्र-पत्रिकाओं, टीवी आदि पर यदा कदा होती रहती है। उसी प्रकार रचनाओं की चोरी की घटनाएँ भी प्रकाश में आती रहती हैं। इनके कारण न्यायालयों में केस किए जाने के समाचार भी प्राप्त होते रहते हैं। इसका शिकार बहुत से लोग होते रहते हैं।
     ये कुछ संकेत हैं रचनाकारों के लिए। इसके साथ यह भी जोड़ना चाहती हूँ कि यदि रचना केवल फूहड़ता-अश्लीलता लिए होती है तो साहित्य की श्रेणी में कदापि नहीं आती। ऐसा साहित्य कदापि सम्मानजनक नहीं होता जिसे छिप-छिपा कर पढ़ना पढ़ा जाएगा या बेचा जाए।
         समाज में बढ़ती विकृतियों को देखते हुए आज साहित्यकारों का दायित्व बढ़ जाता है। उनके लेखन में इतना ओज होना चाहिए जो नयी पीढ़ी को दिशा दे सके।

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