शनिवार, 31 जनवरी 2015

संत समाज का आईना

संत समाज का आईना व मार्गदर्शक होते हैं। साधु-संतों की जाति नहीं पूछी जाती बल्कि उनका ज्ञान परखा जाता है। इसीलिए कहा है-
'जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान।'
       जिसे हम वास्तव में संत कहते हैं वह संसार के बंधनों से मुक्त होता है। ऐसा वह झूठ-फरेब, ईष्या-द्वेष, मोह-माया आदि सांसारिक बंधनों में नहीं बंधता। वह सभी को अपने समान समझता है। वह किसी आडंबर या नाम की इच्छा नहीं रखता।ऐसे संत ही समाज का आभूषण कहलाते हैं। वे अनाम रहकर आत्मोन्नति के लिए समाज से कटकर जंगलों, पर्वतों या गुफाओं साधना करते हुए कैवल्य प्राप्त करते हैं। और यदि समाज में रहते भी हैं तो भौतिक ऐश्वर्यों का त्याग कर समाज की भलाई के कार्य करते हुए संसार से विदा लेते हैं।
       कवि ने बड़े ही सुन्दर शब्दों में मनस्वी जनों को परिभाषित किया है। वे कहते हैं कि वास्तव में मनस्वी संत फूलों की तरह होते हैं जो या तो शहर में रहते हैं तो सबके सिरों पर विराजमान होते हैं या फिर जंगलों में ही तपस्या करते हुए बिना किसी से प्रशंसा की अपेक्षा किए, किसी की नजर में आए बिना नष्ट हो जाते हैं-
कुसुमस्तबकस्यैव द्वे वृत्ती तु मनस्वीनाम्।
सर्वेषां मूर्ध्नि वा विराजयेत् वने वा विशीर्यात्।
         संत समाज में अपने सत्चरित्र और  गुणों से सर्वत्र अपनी सुगंध फैलाते हैं। सदा संतों को हम उनके सद् गुणों, संयम, आचार-व्यवहार, उनकी कथनी-करनी के एकरूप होना आदि गुणों से पहचान सकते हैं।
       संत को पहचान कर, जाँच-परख कर उस पर विश्वास करना उचित होता है। दूसरे लोगों की चिकनी-चुपडी बातों में न उलझकर अपने विवेक पर भरोसा कीजिए। आपकी तर्क की कसौटी पर जो खरा उतरे उसे संत मान अनुसरण करें अन्यथा सब छोड दें।
       जो संत समाज को सही दिशा नहीं दे सकता अथवा दिग्दशर्क नहीं बनता तो ऐसा वह त्याज्य है व सम्मान प्राप्त करने के योग्य नहीं हो सकता। संत की कोई उपाधि नहीं होती। न ही उसके लिए कोई मापदंड होता है। उसके लिए किसी विद्वत परिषद के गठन की भी आवश्यकता नहीं होती।
      संत यदि केवल पुस्तकीय ज्ञान या कुछ सिद्धियों के बल पर जन सामान्य को प्रभावित करता है परन्तु यदि उसका आचरण अनुकरणीय नहीं है तो वह सर्वथा त्याज्य है।
      पुस्तकीय ज्ञान तो गधे पर लादे बोझ की तरह होता है। यदि उसे पढ़कर उस पर मन, वचन व कर्म से आचरण न किया जाए तो वह भार बन जाता है। तभी कहा है-
        ज्ञानं भार: क्रियां विना।
अर्थात् यदि जीवन क्रियात्मक न हो तो ज्ञान भार बन जाता है।
साधु-संतो की कसौटी उनके सद् गुण और सदाचरण होती है। अपने विवेक रूपी निकष पर कसकर ही संतों को अपने सिर का ताज बनाएँ और अपने जीवन को धन्य करने का यत्न करें।

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