शनिवार, 24 जनवरी 2015

शरीर में रहने वाला आलस्य शत्रु

आलस्य मनुष्य के शरीर में रहने वाला बहुत बड़ा शत्रु है। संस्कृत में एक सूक्ति है-
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महारिपुः।
उस महाशत्रु को अपने जीवन में स्थान न दें। आलसी व्यक्ति सदा ही अपने जीवन में असफलता का मुख देखता है। वह नाकारा व्यक्ति किसी का प्रिय नहीं होता। उसे समाज में सम्मान नहीं मिलता। घर-बाहर सर्वत्र उस महारथी को दरकिनार कर दिया जाता है। उसे यही कहा जाता है कि इसके होने न होने से कोई लाभ नहीं। या फिर कहते हैं जाकर आराम करो तुम्हारे बस का कुछ नहीं है। इस प्रकार वह भीड़ में भी अकेला रह जाता है।
       जरा से शारीरिक सुख के लिए इतनी हाय-तौबा? इंसान यह नहीं सोचता कि आलस्य करने से कितनी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। आलसी व्यक्ति भाग्य के भरोसे हाथ पर हाथ रख कर बैठा रहता है। इसमें उसे कोई हिचक नहीं होती। इसीलिए यह उक्ति कही गई है- 'दैव दैव आलसी पुकारा।'
       आलसी का मानना होता है कि जिसने पैदा किया है वही सबका पेट भरता है। यह ठीक है कि वह ईश्वर सबका पालन-पोषण करता है व कोई कमी नहीं रखता। पर शायद ये लोग भूल जाते हैं कि मुँह के सामने पड़ी थाली को मात्र देखने से पेट नहीं भरता। उसके लिए भी मेहनत करनी पड़ती है और हाथ बढ़ा कर कौर तोड़ कर मुँह में डालना पड़ता है तभी पेट भरता है। ऐसे लोगों के लिए मलूकदास जी का निम्न दोहा रामबाण होता है-
अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गए सबके दाता राम॥
यह सोचना कि अजगर को बिना मेहनत किए भोजन मिल जाता है और पक्षी को बिना श्रम दाना मिलता है उचित नहीं। भोजन की तलाश में उन्हें भी स्थान-स्थान पर भटकना पड़ता है और अनेकों कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। ईश्वर निस्संदेह सबका ध्यान रखता है पर साथ ही मेहनत करने के लिए भी कहते हैं।
         परिश्रम करने के लिए प्रेरित करती यह उक्ति देखिए-
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
अर्थात् केवल शेखचिल्ली की तरह सोचते रहने से इच्छाएँ पूरी नहीं होतीं, परिश्रम करने से ही सफलता मिलती है। बिना उद्यम किए हम एक कदम भी नहीं चल सकते।
      आलस के कारण जो परिश्रम करने से जी चुराते हैं वे जीवन की रेस में पिछड़ जाते हैं। अपनी व पारिवारिक दैनन्दिन आवश्यकताओं को जब वो पूर्ण नहीं कर सकते तो धार्मिक व सामाजिक दायित्वों का निर्वहण करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। अभावों में जीवन व्यतीत करते इन लोगों को अपनी पत्नी व बच्चे तक नहीं पूछते।
        ऐसा नारकीय जीवन बिताने से तो अच्छा है कि उठो, परिश्रम करो और फिर मनचाही सफलता प्राप्त करो। सारी मुसीबतों की असली जड़ इस आलस्य को छोड़कर उद्यम करें। घर-परिवार व समाज में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाकर गौरवशाली बनें और सिर उठाकर चलें। इस प्रकार करने से इस जीवन के सभी कार्य सुखपूर्वक सम्पन्न करने का संतोष मिलेगा जो अमूल्य है।
         यह सत्य है कि हम सभी कभी न कभी आलस्य से ग्रसित हो जाते हैं परन्तु फिर भी अपने जीवन की महत्वपूर्ण योजनाओं को सफलतापूर्वक क्रियान्वित करके अपने मार्ग को प्रशस्त करें।

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