गुरुवार, 29 जनवरी 2015

मैं हठी हूँ और मेरा बाल मन भी है हठी

मैं हठी हूँ और मेरा बालमन भी है हठी
देखते हैं किस की हठ पुग जाएगी अब।

कहता है वो मुझसे चाँद ही ला दो मुझे
पानी में परछाई से ही बहला दूँगी तुझे।

छूना चाहता बादलों से परे आकाश को
मैं थमाती हूँ इक फीता उसी नादान को।

उड़ना चाहता है पंख फैलाए पक्षी-सा वो
पल में ही नाप आया सारी धरती है वो।

बहुत खुश नाचना चाहे वन मयूर-सा वो
सोचती हूँ गुनगुना दे कोई मधुर धुन वो।

कह दो चाहतें हैं असीम नहीं मानता वो
उन पर नहीं होता वश उसका जानता वो।

किसकी मर्जी है ये सब समझ पाएगा वो
फिर-फिर कर अब एक चाबुक माँगता वो।

इधर-उधर न भटके उसको थाम लेगा वो
अपनी मंजिलों को सदा ही पहचानता वो।

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