रविवार, 4 जनवरी 2015

संबंधों की गरिमा

अपने रिश्तों का चुनाव हम नहीं करते बल्कि वे हमारे कर्मों के अनुसार ईश्वर की ओर से बनाकर भेजे जाते हैं जबकि अपने मित्रों का चुनाव हम स्वयं करते हैं। ये रिश्ते जितना हमारा संबल बनते हैं उतने ही नाजुक भी होते हैं। बड़ी सूझबूझ से इनको निभाना होता है। जरा सी लापरवाही होने पर इनमें दरार आने लगती है। रिश्तों के विषय में कहा जाता है कि वे कच्चे धागों से बंधे होते हैं। कितने सुन्दर शब्दों में इसी भाव को निम्नलिखित दोहे में समझाया है-
रूठे सजन मनाइए जो रूठें सौ बार।
रहीमन फिर फिर पोहिए टूटे मुक्ताहार॥
        इन रिश्तों में पारदर्शिता होनी बहुत आवश्यक है। सभी रिश्ते अपने-आप में बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं। सबके साथ समानता का व्यवहार करने से सभी नाजुक रिश्ते बने रहते हैं। किसी को भी त्यागना उचित नहीं क्योंकि मनुष्य अपने भाई-बन्धुओं से ही सुशोभित होता है। सभी सुख-दुख भी मिलजुल कर ही काटे जाते हैं।
        आज भौतिक युग में धन को बहुत अधिक अधिक महत्त्व दिया जाता है। नजदीकी रिश्तों को भी स्वार्थ के तराजू में तौला जाता है। जब तक स्वार्थों की पूर्ति होती रहती है तब तक संबंध बने रहते हैं। ऐसे संबंध लंबे समेय तक नहीं चलते। स्वार्थ के पूर्ण होते ही आपसी सौहार्द समाप्त हो जाता है।
        धन-संपत्ति आजकल बहुधा झगड़े का कारण बनती जा रही है। परिवारों में उसके बटवारे को लेकर कोर्ट-कचहरी तक जाने में भी लोग हिचकिचाते नहीं हैं। इस कारण परिवारी जन एक-दूसरे का चेहरा तक नहीं देखना चाहते। वहाँ संबंधों का कोई मूल्य नहीं रह जाता।
      इतना आश्चर्य होता है कि यह देखकर कि लोग दूसरों से दोस्ती गाँठते हैं, उनके साथ संबंध बनाते हैं पर अपने भाई-बहनों से बात करके राजी नहीं होते। उनका चेहरा तक नहीं देखना चाहते।
      बाद चाहे वे तथाकथित मित्र उन्हें धोखा दे जाएँ। उस समय फिर वे उनको कोसते हैं पर कुछ कर नहीं पाते। तब वही कहावत सिद्ध होती है-
अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत।
      अपने घर-परिवार में यदि कोई भाई-बहन पैसे से कमजोर है तो उससे किनारा करना चाहते हैं। उन्हें बातचीत तक रखना नहीं चाहते। उससे यथासंभव दूरी बनाए रखते हैं।
        वे सोचते हैं कि पैसे के बल पर दुनिया खरीद लेंगे पर भूल जाते हैं कि रिश्ते-नाते पैसे से नहीं खरीदे जाते। यह पूँजी ईश्वर ने हमें दी है इसे सहेज कर रखना हमारा दायित्व है। जीवन ऐसा समय अवश्य आता है जब अपनों के साथ की बहुत आवश्यकता होती है। जो लोग रिश्तों का मूल्य समझते हैं वे प्रसन्नता पूर्वक उस समय अपनों के साथ का आनन्द उठाते हैं और दूसरे पछताते हैं कि काश कोई अपना होता। जब अपनों को पराया करते हैं उस समय नहीं सोचते कि कभी उनके बिना जीवन व्यतीत करना कठिन हो जाएगा। रहीम जी ने बड़े सुन्दर शब्दों में कहा है-
रहीमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाए।
जोड़े से फिर न जुड़े जुड़े गांठ पड़ी जाए॥
       अपने प्रिय जनों से बिछुड़ने का दंश झेलना बहुत कठिन होता है। हमारे बड़े-बजुर्ग कहा करते थे-
   अपना मारेगा तो भी छाया में फैंकेगा
अर्थात् जो दर्द अपनों को होता है वह दूसरों को नहीं होता।
        यथासंभव रिश्तों की मिठास बनाए रखने का यत्न करें। अपने अपने ही होते हैं। पराए मुखौटा लगाकर अपने हो सकते हैं पर वे बन नहीं सकते। इसलिए उन्हें स्वयं से दूर न करिए। थोड़ा झुककर भी साथ निभाना पड़े तो उसे अन्यथा न सोचें। ईश्वर भी उन्हीं से प्रसन्न होता है जो उसके द्वारा बनाए गए संबंधों को सद् भावना से निभाते हैं।

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