सोमवार, 5 जनवरी 2015

अतिथि देवो भव

'अतिथि देवो भव' अर्थात् अतिथि यानि घर आए मेहमान को भगवान मानो। ऐसा हमें समझाकर अतिथि का सम्मान करना सीखाने वाली भारतीय सांकृतिक परंपरा ही हो सकती है कोई अन्य नहीं।
          हमारे ग्रन्थों के अनुसार अतिथि साधु, संतों या विद्वानों को कहते थे। ये वे लोग होते थे जो दुनियादारी से दूर रहकार समाज का दिशा-निर्देश करते थे। ऐसे ज्ञानी जन कभी भी किसी भी गाँव या प्रदेश में चले जाते थे। जहाँ शाम या रात हो गयी वहीं डेरा डाल लेते थे। जन-साधारण को ज्ञानोपदेश देकर एक-दिन रुककर आगे निकल जाते थे।
        ये विद्वत जन मोह-माया से परे किसी स्थान पर अधिक समय नहीं ठहरते थे। इन लोगों के आने का कोई निश्चित समय नहीं होता था इसलिए अ + तिथि यानि बिना तिथि आने वाले कहलाते थे। बिना नखरा किए जो मिल जाता था खा लिया करते थे।
       वास्तव में ये अतिथि समाज की धरोहर होते थे जिनके भरण-पोषण करने का दायित्व समाज पर होता था। ये समाज पर बोझ नहीं होते थे बल्कि समाज का उचित मार्ग दर्शन करके उनकी आत्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करते थे।
        आजकल अन्यों की तरह अतिथि के मायने भी बदल गए हैं। अतिथि तो अब भी हमारे घरों में आते हैं पर बिना बताए नहीं। आज इस भौतिक युग में चारों ओर मारामारी हो रही है, आपाधापी मची हुई है। किसी को किसी से मिलने का समय ही नहीं है। सच्ची बात तो यह है कि कोई किसी से मिलना ही नहीं चाहता। सभी अपने को तीसमारखाँ समझते हैं। अगर मजबूरी में मिलना भी पड़े तो सभी को भारी पड़ता है। सब समय न होने का रोना रोते रहते हैं।
        वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है केवल हममें इच्छा शक्ति की कमी है। वैसे अपनी मर्जी से व्यर्थ में हम घंटों बरबाद कर देते हैं। खैर, फिर भी मेहमानों का आना जाना तो लगा ही रहता है।
       मेहमान भी अब बहुत समझदार हो गए हैं। वे भी दूसरे की मजबूरी जानते हैं। इसलिए बिना पूर्व सूचना के नहीं आते। जो लोग हमें पसन्द होते हैं उनका स्वागत हम गर्मजोशी से करते हैं। जिन्हें हम नापसन्द करते हैं उनके घर आने पर हम अनमने हो जाते हैं। उनका सत्कार हम करते तो हैं पर भार समझ कर।
       आज के युग में किसी के घर में कुछ दिन रहने की बात बड़ी विचित्र-सी प्रतीत  होती है। परन्तु कुछेक स्थितियों में रहने के लिए भी आना होता है। जब किसी के घर रहने की आवश्यकता हो तो तो अपने अतिथि धर्म का निर्वहण करना चाहिए। कहना यही है कि मेहमान को दूसरे के घर में मेहमान न बनकर घर के सदस्य की भाँति व्यवहार करना चाहिए। ऐसा करने पर वह बोझ नहीं बनता बल्कि सबका प्रिय बन जाता है। जब वह पुनः कभी वहाँ जाता है तो खुले दिल से उसका स्वागत किया जाता है।
         इसके विपरीत जो अपनी अकड़ में रहकर दूसरे के घर की व्यवस्था के अनुरूप ढलना नहीं चाहता वह अतिथि अपने मेजबान की आँखों में खटकता है। उससे कोई प्रसन्न नहीं होता और सभी यही मनाते हैं कि वह शीघ्र ही चलता बने।
        मित्रों अथवा संबधिंयों के घर जाते समय अपनेआप को संतुलित रखना चाहिए। बच्चों को भी अनुशासन में रहने के लिए समझाना चाहिए। तभी किसी के घर जाने में सम्मान मिलता है। बच्चों की उद्दंडता के कारण भी कई बार अतिथि व आतिथेय में मनमुटाव हो जाता है। इस अप्रिय स्थिति से हमेशा बचने का प्रयास करें।
       अतिथि को भगवान की तरह मानने की परंपरा वाले अपने देश में समय व परिस्थितियों के चलते चाहे कुछ स्वाभाविक बदलाव आए हैं परन्तु आज भी अतिथि का स्वागत-सत्कार अपनी सामर्थ्य के अनुसार किया जाता है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें