गुरुवार, 15 जनवरी 2015

आध्यात्मिक यात्रा

हर व्यक्ति आज के इस भौतिकतावादी एवं उपभोक्तावादी युग में जीवन की भागदौड़ में इतना उलझा हुआ है कि इस आपाधापी की जिन्दगी में उसे सुकून के दो पल भी नहीं मिल पाते। अब या तो वह आराम कर ले या परिश्रम। यदि वह आराम करेगा तो जीवन की दौड़ में पिछड़ जाएगा और अपनी दैनन्दिन आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकेगा। यदि मेहनत करते हुए चौबीसों घंटे व्यस्त रहेगा तो सुख-शांति नहीं पा सकेगा।
      उसकी यह भटकन मृगतृष्णा की तरह है। जैसे रेगिस्तान में चलते हुए प्यास लगती है तो धूप में चमकती हुई रेत में पानी का आभास होता है। अर्थात् ऐसा प्रतीत होता है कि सामने पानी है और जब पास जाओ तो मनुष्य को चारों ओर रेत ही रेत दिखाई देती है। पानी के उस आभास में हम फिर प्यासे रह जाते हैं।
      बहिर्मुखी मानव भौतिक वस्तुओं, सुख के उपकरणों व सुख-सुविधा के साधनों को सुख-शांति का उत्स(झरना) मानकर अपने जीवन का बहुमूल्य समय व्यर्थ गँवा देता है। पर उसकी इच्छाएँ या कामनाएँ समाप्त नहीं होतीं। एक के बाद एक प्रलोभनों के जाल में उसे फँसाए रहती हैं जिससे बाहर निकलने का वह असफल प्रयास करता रहता है।
       मानव मन संकल्प-विकल्प में भंवर में ही गोते खाता रहता है। उसका चंचल मन सदा उठा-पटक में लगा रहता है। इससे उसका मस्तिष्क भी अस्थिर होता रहता है। एवंविध मन और मस्तिष्क के टकराव में वह हरपल पिसता रहता है। मन मनुष्य को भटकाता रहता है। जबकि उसका मस्तिष्क विवेक बुद्धि  होते उसे सन्मार्ग दिखाता है। उसे भटकने से रोकता है। पर कभी उसका विवेक हावी हो उसे दिशा देता है और कभी मन हावी होकर उसे अस्थिर बनाता है।
       इसीलिए यहाँ-वहाँ वह सुख-शांति को खोजता फिरता है। कभी-कभी मनुष्य ढोंगी बाबाओं के पीछे भागता है। कभी तथाकथित ज्योतिषियों व तान्त्रिकों के चक्कर में पड़ जाता है। फिर तीर्थस्थलों की खाक छानता फिरता है। ये सब भी उसकी मनचाही तलाश को पूर्ण नहीं करते।
       शांति की खोज में कस्तूरी मृग की भाँति मनुष्य हर समय इधर-उधर  मारा-मारा फिरता रहता है फिर भी उसे सुख-शांति नहीं मिलती। कस्तूरी मृग वह होता है जिसकी नाभि में कस्तूरी होती है। जब मृग को उसकी खुशबू आती है तो वह उसे जंगल में उसे ढूँढने के लिए भटकता है पर उसके हाथ निराशा ही लगती है। इसका कारण है कि वह खुशबू तो उसके अंदर ही होती है इसलिए उसका जंगल की खाक छानना व्यर्थ हो जाता है। वैसे ही सुख व शांति उसको अंतर्मुखी होने पर अंत:करण में ही मिलती है। उसका बाहर भटकना व्यर्थ ही सिद्ध होता है। कबीरदास जी ने कहा है कि ईश्वर कहते हैं- 'हे मनुष्य में तो हर समय तेरे पास हूँ। न मैं मंदिर में मिलता हूँ न मस्जिद में और न ही काशी व काबा में। मैं हरपल तेरे पास हूँ। यदि मुझे खोजना चाहता है तो पलभर की तलाश में मैं मिल जाता है।'
         सुख और शांति की तलाश तब पूरी हो सकती है जब मनुष्य अपने मन को साधकर भटकने से बचे। मन की लगाम कसने के लिए  विवेक का आश्रय लेना आवश्यक है। भगवान कृष्ण ने गीता में समझाया है कि वैराग्य और अभ्यास से इस मन को साधने में सफलता प्राप्त होती है।
        जहाँ मन इधर-उधर भागने लगे उसे समझिये कि इस भागमभाग का कोई अंत नहीं और अपने विवेक का सहारा लेकर आगे बढ़ें। इससे उन्नति भी होगी और ऊहापोह की स्थिति से भी बचा जा सकता है। तभी सही मायने में सुख और शांति से हम अपना यह जीवन व्यतीत कर सकेंगे।

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