बुधवार, 21 जनवरी 2015

बच्चों से घर की शोभा

घर की शोभा बच्चों से होती है। उनके न होने पर घर सुनसान हो जाता है। उनके बिना घर काटने को दौड़ता है व घर-घर नहीं लगता। घर को घर बनाने में माता-पिता व दादा-दादी का सहयोग आवश्यक होता है पर बच्चों के सहयोग के बिना तो घर-घर ही नहीं कहला सकता।
       बच्चों की चहल-पहल घर को जीवन्त बनाती है। उनकी मात्र उपस्थिति ही घर की रौनक बनती है। इसीलिए उन्हें चिराग कहा जाता है।
         मुझे आज तक यह समझ में नहीं आया कि लोग अपने बच्चों को बेसहारा कैसे छोड़ देते हैं या थोड़े से तुच्छ धन के लिए किसी अंजान को सौंपने को तैयार हो जाते हैं।
       बड़े लोग कितने ही एक स्थान पर बैठे हों पर वहाँ वह चहल-पहल नहीं हो सकती जितना एक छोटे बच्चे की मौजूदगी में होती है। उसके आते ही सारा वातावरण जीवन्त हो जाता है।
       बच्चों का हृदय बहुत ही कोमल होता है। जरा सी ठेस लगने पर वह काँच की तरह टूटकर बिखर जाता है। वे कुछ समझ ही नहीं पाते क्योंकि वे दुनियादारी से अभिज्ञ होते हैं।
       इनकी सुरक्षा हमारा दायित्व हैं। यद्यपि आज के युग में जब तक पति-पत्नी दोनों काम न करें गुजारा नहीं होता। पर साथ ही यह ध्यान रखना भी आवश्यक है कि ये बच्चे घर में नौकरों की मेहरबानी पर न रहें। आपसी मनमुटाव और अहम को छोड़कर बच्चों को उनके दादा-दादी की छत्रछाया में पलने दें। उनके प्यार-दुलार से बच्चों को सुरक्षाकवच तो मिलेगी ही साथ में उनको संस्कार भी मिलेंगे। इससे वे सुसंस्कृत व सभ्य बनेंगे।
       सभी माता-पिता अपने बच्चों के सुनहरे भविष्य के लिए जीतोड़ मेहनत करते हैं । बड़े दुख की बात है कि वे समयाभाव के कारण उनको यथोचित संस्कार नहीं दे पाते। जब बच्चे बिगड़ जाते हैं या उनके हाथ से निकल जाते हैं तो उन्हें पछताना पड़ता है।
        घर-बाहर हर स्थान पर उनका अमर्यादित व्यवहार माता-पिता के लिए शर्मिंदगी का कारण बनती है। ऐसे बच्चों को कोई मित्र या रिश्तेदार अपने घर नहीं बुलाना चाहता। आस-पड़ोस और स्कूल हर स्थान से उसकी मिलती हुई शिकायतें भी माता-पिता को नजरें झुकाने को मजबूर कर देती हैं।
       बच्चे जब चलना-बोलना सीखते हैं तब से उनको संस्कार देना प्रारंभ करना चाहिए तभी वे सुसंस्कृत बनते हैं। जैसे गुण अपने बच्चों में देखना चाहतें हैं उन्हें स्वयं में भी ढालें।
       आजकल फैशन हो गया है कि नर्सरी कक्षा से ही बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने का। जहाँ तक हो सके उन्हें स्वयं पढ़ाएँ। जितना अच्छा व प्यार से आप पढ़ा सकते हैं वो कोई दूसरा नहीं। यथासंभव बच्चों के मित्र बनें जिससे वे अपने मन की हर बात आपको बता पाएँ। अपनी छोटी-छोटी समस्याओं को आपके साथ बाँट सकें।
      यदि बच्चा आपका अमर्यादित जीवन देखेगा तो वह भी वही सीखेगा। वह बिना सिखाए घर-परिवार के वातावरण को देखकर बहुत कुछ सुन-समझ जाता है जिसकी आप कल्पना नहीं कर सकते।
      बच्चों के सुखद भविष्य के लिए उनका मानसिक व शारीरिक रूप से स्वस्थ होना बहुत आवश्यक होता है। माता-पिता का नैतिक दायित्व है कि वे देश व समाज का भविष्य अपने बच्चों को हर प्रकार से योग्य बनाएँ ताकि वे सिर उठाकर चलें  व अपना एक स्थान बनाकर सम्मानित जीवन व्यतीत कर सकें।

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