बुधवार, 15 जुलाई 2015

शहरों की नयी उपज

शहरों की नयी उपज
कंक्रीट के इन जंगलों में
अक्सर रिश्तों की गरमाहट को
देखा है सुलगते हुए सिसकते हुए

ऊँची अट्टालिकाओं में
रहने वाले इन हृदयों में अब
शायद वो बात नहीं रह गई है
जो अपनेपन से सहलाया करते थे

किसी की चाहत नहीं
किसी चेहरे से राहत नहीं
दोस्त भी खलने लगे हैं आज
मिलना और बिछुड़ना एक हो गया है

ईंट पत्थर-सा बन रहा
कठोर और नृशंस ये मन
अहम भी सिर ताने खड़ा है
कौन किसकी सुने नहीं पहचानता है

घर की खिड़कियाँ अब
बंद रहने लगी हैं रात-दिन
शीतल बयार भी भाती नहीं
संवेदना शून्य होते जा रहे लोग हैं

ऐसे तो न थे हम कभी
क्योंकर कठोर बन गए
इन जंगलों में भटकते हुए
भूलभूल्लैया में खोते जा रहे लोग हैं

जीना दुश्वार हो जाएगा
गर सबको छोड़ देंगे हम
अजनबी बन करके रह पाना
न हो पाएगा इस भूलोक पर है अब

थाम लेते हैं अब हम
हाथ एक दूसरे का यहाँ
फिर कोई जंगल न डरा पाएगा
न थका पाएगा कोई किसी राह पर है।
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