बुधवार, 29 जुलाई 2015

आतंक का कोई धर्म नहीं

आतंक की कोई भाषा नहीं होती। उसका कोई धर्म नहीं होता। केवल आतंक फैलाना उसका एकमात्र उद्देश्य होता है। आतंकवादी के माता-पिता, भाई-बहन, मित्र-रिश्तेदार, गुरुजन, घर-परिवार, समाज, धर्म, दर्शन आदि कोई भी नहीं होते। आतंकवादी मानवता के शत्रु होते हैं।
        आतंकवाद मानवता की जड़ों को पल-पल खोखला करता रहता है। इस उन्माद के कारण दूसरों पर अमानवीय अत्याचार करना,  अन्याय करना, दूसरों के जीवन से खिलवाड़ करना तो किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता।
      सभी धर्म आपस में प्रेम, भाईचारा, सद्भावना, सहिष्णुता का मार्ग दिखाते हैं अलगाव या विद्वेष का नहीं। कोई भी धर्म कभी भी किसी एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य से नफरत करना या लड़ना नहीं सिखाता। इकबाल की यह पंक्ति याद आ रही है-  
     मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना।
        हमारे समक्ष ये प्रश्न मुँह बाये खड़े हैं कि फिर धर्म के नाम पर यह मार-काट क्यों? अत्याचार क्यों? इंसान एक-दूसरे के खून का प्यासा क्यों? समझ नहीं आता कि इंसान दिन-ब-दिन असहिष्णु क्यों बनता जा रहा है?
       धर्म के नाम पर आतताइयों की जमात तैयार करने वाले मानवता के शत्रु होते हैं। हम किसी को इजाजत नहीं दे सकते कि वह मासूम बच्चों को धर्म के नाम पर झोंक दे। उनके माता-पिता को सारे जीवन का गम देकर निराश्रित कर दे।
        वह धर्म कदापि नहीं हो सकता जो मनुष्य को बुराई के रास्ते पर ले जाए। वे तथाकथित धर्मगुरु भी बहिष्कृत करने योग्य हैं जो जन साधारण को ईश्वरीय ज्ञान से मालामाल करने के स्थान पर उन्हें कुमार्ग या पतन की ओर प्रवृत्त करें।ऐसे धर्मगुरुओं का सामाजिक रूप से बहिष्कार होना चाहिए उन्हें सिर पर नहीं बिठाना चाहिए।
      आज पूरा विश्व इस धार्मिक उन्माद का शिकार है। जगह-जगह बम विस्फोट करवाना या मानव बंब बनाकर दूसरों के साथ उनकी भी हत्या सभ्य कहे जाने वाले समाज को शोभा नहीं देता।
          यह धार्मिक उन्माद जहर की तरह फैलता है जो देश व समाज की जड़ों को खोखला करता है। यदि समाज का विघटन होगा तो हमारी ही हानि है। हम अपनी आने वाली पीढ़ी को क्या विरासत दे सकेंगे? पर यदि देश को इस विष से नहीं बचाएँगे तो देश रसातल की ओर जाएगा। तब हम सब देशवासियों का अस्तित्व भी नहीं बच सकेगा। स्वयं अपनी व अपने देश एवं समाज की रक्षा के लिए इन धर्म विरोधी गतिविधियों से किनारा करना ही श्रेयस्कर है।
      जो मानवता का विरोधी हो वो धर्म नहीं हो सकता और जो आत्मोन्नति का पथ न दिखा सकें वो धर्मगुरु नहीं कहला सकता। इन दोनों को तिरस्कृत व बहिष्कृत कर देना चाहिए क्योंकि ये सम्मान के योग्य नहीं होते। इसलिए यथासंभव इनसे किनारा कर लेना चाहिए।
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