रविवार, 5 जुलाई 2015

कस्तूरी की मृग की तरह तलाश

कस्तूरी मृग की तरह हम सुगन्ध को ढूढँने के लिए भटकते रहते हैं। कस्तूरी हिरण की नाभि में होती है और उसे खोजने के लिए वह जंगल में मारा-मारा फिरता है। उसी प्रकार ईश्वर रूपी कस्तूरी हमारे हृदयों में विद्यमान है पर हम उसे खोजने के लिए भटकते फिरते रहते हैं।
          हम उसे ढूँढने के लिए  कभी तीर्थ स्थलों की सैर करते हैं, कभी जंगलों में भटकते फिरते हैं अथवा धार्मिक स्थानों पर जाकर माथा रगड़ते हैं। पवित्र नदियों के जल में स्नान करके आत्मशुद्धि का व्यर्थ प्रयास करते हैं। इसी कड़ी में तथाकथित पाखण्डी धर्म गुरुओं, तन्त्र-मत्र वालों के जाल में फंसते जाते हैं। पर ईश्वर तो फिर भी कहीं नहीं मिलता। वह तो हमें तभी मिलेगा न जब हम उसे सच्चे मन से तलाशेंगे।
         हम मानते हैं ईश्वर कण-कण में और जर्रे-जर्रे में विद्यमान है। उसे खोजने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह हर घड़ी, हर पल हमारे अंगसंग रहता है। उसका निवास स्थान तो हमारा हृदय है जिसे हमने मंदिर की तरह पवित्र बनाना है। ऐसा तभी होगा जब हम यम-नियमों का पालन सख्ती से करेंगे।
         धर्म के दसों लक्षणों के अनुसार ही चलेंगे- धैर्य, क्षमा, संमय, चोरी न करना, तन-मन की पवित्रता, इन्द्रयों को वश में करना, सद् बुद्धि रखना, विद्या ग्रहण, सत्य बोलना करना और क्रोध न करना।
          इन यम-नियमों और धर्म  का पालन करके हम अपने जीवन को सात्विक बना लेंगे, उस समय जब चाहेंगे अपने मन में उस प्रभु का ध्यान लगाकर उसका साक्षात्कार करने में सक्षम हो सकेंगे।
       हम उस परमपिता का अंश हैं, वह सदा ही हमें अपने में समेटे रखना चाहता है। इसलिए वह सदा ही हमारे साथ रहता है। वह कभी हमें अपने से दूर नहीं करना चाहता। पर हम अड़ियल व नादान बच्चे की तरह उसकी अंगुली छुड़ाकर इधर-उधर भागते रहते हैं। इस संसार के आकर्षण इतने अधिक हैं कि हम ललचाते हुए उनकी ओर जाना चाहते हैं।
         यहाँ एक उदाहरण देना चाहती हूँ। बच्चे अपने कैरियर, पढ़ाई या किसी अन्य आकर्षण के कारण अपने माता-पिता को छोड़कर देश अथवा विदेश कहीं भी चले जाते हैं। तब उनके माता-पिता पलक-पाँवड़े बिछाए उनकी राह निहारते रहते हैं और पल-पल उनकी प्रतीक्षा करते रहते हैं।
          यही स्थिति हमारी है हम भौतिक आकर्षणों के कारण, कभी सांसारिक बंधनों को निभाने के नाम पर, कभी अपनी बिमारियों का ढोल पीटते हुए या फिर अपनी व्यस्तताओं का रोना रोते हुए उस प्रभु से दूर होते जाते हैं। हमारे लौट आने की प्रतीक्षा करता हुआ वह वहीं खड़ा रहता है।
          जब हम सच्चे मन से भाव-विभोर होकर उसे पुकारते हैं तो वह हमें अपने में समेट लेने के लिए आतुर हो जाता है। जब हम तन और मन से पवित्र हो जाते हैं,  तब ईश्वर के और करीब हो जाते हैं।
        हमारे विद्वान मनीषी हमें समझाते हैं कि कस्तूरी की तरह हमारे अपने हृदय में विद्यमान उस परमेश्वर की सुगन्ध को पाने के लिए अनावश्यक भटकाव से मुक्त होकर स्वयं को उसके योग्य बनाओ। अपने मन को मन्दिर की तरह पवित्र बनाने के लिए वे बल देते हैं ताकि वहाँ पर ईश्वर का वास हो सके। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि तभी हम ईश्वर के साथ एकाकार या ईश्वरमय हो सकते हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें