गुरुवार, 16 जुलाई 2015

अपनी तारीफ की आवश्यकता

मुझे आज तक नहीं समझ आया कि मनुष्य को अपनी तारीफ करने की आवश्यकता क्यों महसूस होती है? उसके कार्य ही ऐसे होने चाहिएँ जो बिना कहे ही बोलें और लोग स्वयं उसकी प्रशंसा करने के लिए विवश हो जाएँ।
         अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना तो कोई अच्छी बात नहीं है। ऐसा व्यक्ति जो हमेशा अपनी तारीफों के पुल स्वयं बांधता रहता है लोग उसे नापसंद करते हैं और अहंकारी की पदवी देते हैं। सामने किसी कारणवश उसकी हाँ में चाहे हाँ मिलाएँ पर पीठ पीछे उसकी निन्दा करते हैं।
           दूसरों की प्रशंसा में प्रशस्ति गान करना चारण और भाटों का ही कार्य माना जाता था जिन्हें समाज में कोई ऐसा विशेष सम्मान नहीं मिलता था। आजकल भी हमारे आसपास इस केटेगरी के बहुत से लोग विद्यमान हैं या यूँ कहें कि बहुतायत में मिल जाते हैं। 'चमचे या कड़छे' कहकर लोग उनका उपहास करते हैं।
         यदि हम दूसरों से अपनी प्रशंसा सुनना चाहते हैं तो सबसे पहले हमें अपने व्यवहार को बदलना होगा। अपने अंतस की कमियों को ढूँढ-ढूँढ कर उन्हें दूर करना होगा। देश, धर्म, समाज और अपने घर-परिवार के सभी दायित्वों को दक्षता से पूरा करना होगा। जहाँ तक हो सके अपने मानस को भी आलोचना के लिए भी तैयार करना होगा। दुनिया दुर्जनों की आलोचना करती है तो सज्जनों का विरोध करने से भी नहीं चूकती। इसके लिए बताने की आवश्यकता नहीं है। सभी महापुरुषों, समाजसेवियों को हम इस श्रेणी में रख सकते हैं जिन्हें अपने जीवनकाल में असहनीय कष्टों का सामना करना पड़ा पर वे धीर लोग अपने लक्ष्य से नहीं हटे।न
        एक उदाहरण देखते हैं। एक कुम्हार बेटे और गधे के साथ पैदल चल रहा था। किसी ने छींटाकशी की- 'कितना पागल है? सवारी साथ है पर दोनों बाप-बेटा पैदल चल रहे हैं। कुम्हार ने बेटे को गधे पर बिठा दिया और पैदल चलने लगा। थोड़ी देर बाद किसी ने ताना मारा- 'बूढ़ा बाप पैदल चल रहा है और जवान बेटा सवारी कर रहा है।' अब कुम्हार गधे पर बैठ गया और बेटा पैदल चलने लगा। कुछ दूरी तय करने पर किसी ने फिर किसी ने कुम्हार को कोसा। अब वे दोनों गधे पर सवार हो गए तो फिर किसी मनचले ने कटाक्ष किया कि दोनों बाप-बेटा बेजुबान की जान लोगे क्या? अब उन्हें गुस्सा आ गया और वे दोनों गधे को उठाकर चलने लगे तब भी लोगों को चैन नहीं आया और उपहास करने लगे- ' इन बाप-बेटे जैसा मूर्ख नहीं देखा जो गधे जैसी सवारी होते हुए पैदल चल रहे हैं और उसे उठा रखा हैं।'
          कहने का तात्पर्य यह है कि दुनिया तो किसी भी तरह जीने नहीं देगी पर हमें हार नहीं माननी है। उसे झुकने पर विवश कर देना है। जब लोग देखते हैं कि व्यक्ति विशेष की कितनी भी आलोचना करो उस पर कोई असर नहीं होता बल्कि इसके गुणों की कीर्ति की सुगन्ध चारों ओर फैलती ही जा रही है तो वे हारकर चुप हो जाते हैं।
          लोगों को अपने गुणों का आकलन करने दीजिए। समय बीतते वे स्वयं समझ जाएँगे कि फलाँ व्यक्ति गहरे पैठा हुआ है। उसके गुणों से प्रभावित हुए बिना कोई नहीं रह सकता तो उनका बखान भी वे अवश्य ही करेंगे।
          अपनी प्रशंसा में कसीदे पढ़कर ओछा या अहंकारी बनने से अच्छा है कि समाज को परखने का अवसर दीजिए। अपनी अच्छाइयों को आप पर्दों में छिपाकर नहीं रख सकते। वे तो फूलों की तरह सभी दिशाओं को सुवासित करेंगी। शेष सब ईश्वर पर छोड़ दें। वह आपके सद् गुणों व सुचरित्र को निस्सन्देह सराहेगा।
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