रविवार, 19 जुलाई 2015

नश्वर शरीर।

हम इस बात से अनभिज्ञ नहीं हैं कि हमारा यह शरीर नश्वर है। इस असार संसार में जो जीव जन्म लेता है उसे अपने पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार मिला हुआ समय पूर्ण करके इस दुनिया से विदा लेनी पड़ती है। इसमें जीव की इच्छा या प्रसन्नता कोई मायने नहीं रखती।
        इस संसार से जाना है तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि हम अपने दायित्वों से मुँह मोड़ लें या पलायनवादी प्रवृत्ति के बन जाएँ। अपने व अपनों के प्रति लापरवाह बन जाएँ। कुछ विद्वान कहते हैं-
'क्या तन माँजना रे आखिर माटी में मिल जाना।'
          यह तो पलायनवादी वृत्ति है या अति वैराग्य की स्थिति है कि संसार से जब जाना ही है तो फिर अपने शरीर को न स्वच्छ रखो, न सजाओ और न ही संवारो। उन लोगों का कहना है कि जब शरीर नश्वर है तो इसकी सार संभाल करने या इसको सजाने में सारा समय व्यतीत करने का तो कोई लाभ नहीं। इसको साफ करने या माँजने में समय लगाना उसे व्यर्थ गंवाना है।
          हम मानते हैं- 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।' अर्थात शरीर धर्म के कार्यों को पूर्ण करने का साधन है। यदि शरीर रोगी हो जाएगा तो मनुष्य अपना ध्यान नहीं रख पाएगा। अपने स्वयं के, धार्मिक, पारिवारिक, सामाजिक सभी दायित्वों का निर्वहण नहीं कर सकेगा। तब वह ईश्वर का स्मरण भी नहीं कर सकेगा। इस शरीर  को हृष्ट-पुष्ट रखने के लिए उचित आहार-विहार व स्वास्थ्य के नियमों का पालन करना बहुत आवश्यक है।
        धर्म के दस नियमों में भी 'शौचम्' कह कर तन और मन की शुद्धता पर बल दिया गया है।
        इस बात को मानने के लिए कदापि इंकार नहीं है कि शरीर की ओर ही सारा समय ध्यान नहीं देना चाहिए। इस कारण दीन-दुनिया को भूल जाएँ या हम अपने दायित्वों से किनारा कर लें यह किसी भी उचित नहीं है।
       हम इस बात को भी भूल नहीं सकते कि हमारा यह शरीर तो एक रथ के समान है जो इस शरीर में विद्यमान आत्मा को एक साधन के रूप में मिला है। इसमें बैठे यात्री आत्मा को वह इस सृष्टि की यात्रा करवाता है। अपने पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार ईश्वर प्रदत्त आयु पूर्ण करने के उपरान्त ही यह शरीर रूपी रथ आत्मा को उसके लक्ष्य मोक्ष तक ले जाता है। यदि इस रथ में पर्याप्त ईंधन न डाला जाए, इसका रख-रखाव सुचारू रूप से न किया जाए तो रथ अपनी गति से नहीं चल सकता।
         हमारा यह भौतिक शरीर ईश्वर की देन है। इसको सजाने-संवारने में अति का समर्थन कोई भी नहीं करेगा। परन्तु फिर भी इसकी देखभाल करने का दायित्व भी तो हमारा ही है। उससे हम कैसे मुँह मोड़ सकते हैं? यदि इसे साफ-सुथरा नहीं रखेंगे तो यह अस्वस्थ होकर हमारे लिए भार बन जाएगा। यदि कई-कई दिन तक वस्त्र नहीं बदलेंगे या स्नान नहीं करेंगे तो मैला संप्रदाय वाले साधुओं की तरह दूर से ही दुर्गन्ध आने लगेगी। कोई भी पास बैठना पसंद नहीं करेगा।
         क्षणिक वैराग्य की बात करें तो हमें श्मशान में जाकर आता है। फिर कुछ ही क्षण पश्चात अर्थात वहाँ से बाहर निकलते ही सब सामान्य ढर्रे पर चलने लगता है। हम भी सब कुछ भूलकर दुनिया के व्यापार में जुट जाते हैं।
        संसार के आकर्षण इतने अधिक हैं कि इससे वास्तव में वैराग्य होना बहुत ही कठिन है। दुनिया के मोहमाया के बंधनों में फंसे हम मनुष्य वैराग्य के सही मायने नहीं जान पाते। चर्चा करने मात्र से वैराग्य की स्थिति नहीं बनती। उसके लिए मन को संसार से विरक्त करने की आवश्यकता होती है जो वास्तव में टेढ़ी खीर है। जल में कमल की तरह रहना वैराग्य है। राजा जनक की तरह कोई विरला ही मिलेगा जो सही अर्थों में वैरागी या वीतरागी होगा।
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