शनिवार, 1 अगस्त 2015

मानव जन्म कठिनता से

मानव शरीर में रहने वाली इस आत्मा का भौतिक शरीर धारण करना कोई नई बात नहीं है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण ने आत्मा के शरीर बदलने के विषय में कहा है-
             वासांसि जीर्णानि यथा विहाय,
                    नवानि   गृह्णाति   नरोSपराणि।
              तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्य-
                   न्यानि   संयाति   नवानि  देहि॥
इस श्लोक का अर्थ है कि हम मनुष्य पुराने, कटे-फटे कपड़ों को बदलकर नए वस्त्र पहन लेते हैं उसी प्रकार आत्मा रोगी, बूढ़े शरीरों को छोड़कर नए शरीर धारण करती है।
          सृष्टि के आदि से अब तक अगणित योनियों में इसने शरीर धारण किया है। युद्धक्षेत्र में अपने बन्धु-बान्धवों को देखकर जब महान धनुर्धर अर्जुन जब विचलित हो गए थे तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें समझाते हुए श्रीमद्भगवद्गीता में कहा था-
         न त्वाहं जातु नासं च त्वं नेमे जनाधिपा:।
          न चैव न भविष्याम: सर्वे वयमत: परम्॥
अर्थात जो भी इस युद्धक्षेत्र में विद्यमान मैं, तुम और ये सभी राजा पहले इस संसार में नहीं थे ऐसा नहीं है और भविष्य में जन्म नहीं लेंगे ऐसा भी नहीं है। यह श्लोक हमें स्पष्ट रूप से बता रहा है कि हम सब लोग बार-बार इस पृथ्वी पर जन्म लेते हैं।
        इस संसार का शायद ही कोई संबंध होगा जिसमें ये आत्मा अवतरित नहीं हुई। भौतिक शरीर के अनेकानेक माता-पिता, भाई-बन्धु, मित्र, बॉस, सेवक आदि रहे हैं जिनकी गणना करना हमारे लिए असंभव है।
           जब जीव के पुण्य कर्म और पाप कर्म बराबर हो जाते हैं तब उसे मनुष्य का जीवन मिलता है। अनेक कष्टों को भोगकर और अनेकानेक योनियों में आवागमन करता हुआ जीव मानव योनि प्राप्त करता है। यदि पुण्य कर्मों की अधिकता हो तो सभी ऐश्वर्यों से पूर्ण जीवन व्यतीत करता है। पुण्य कर्मों की जमापूँजी (bank balance) न होने पर जीव को जीवनकाल में अभाव ग्रस्त जीवन जीने पर विवश होना पड़ता है।
         अभावों में जीवन व्यतीत करने वाले मृत्यु पर्यन्त संघर्ष करते रहते हैं परन्तु सफल नहीं हो पाते। अगर पूर्वजन्मों में पुण्यकर्मों को अपने खाते में जमा किया होता तो शायद वे भी सुख-समृद्धि का भोग कर रहे होते। जीवन काल में कभी तो सफलता की आहट सुन लेते। तब न अमीरों से घृणा करते और न ही अमीरी के स्वप्न उन्हें उद्वेलित करते।
         यदि अब सद् कार्य करके अपने कर्मों की जमापूंजी में बढ़ोत्तरी कर लेंगे तब  हमें किसी से ईर्ष्या करने की या दूसरों की होड़ करने की आवश्यकता नहीं रहेगी। हम अपने शुभकर्मों से ही वह सब वस्तुएँ प्राप्त कर लेंगे जो जीवन जीने के लिए उपयोगी हैं।
         सार यही है कि जितने शुभकर्म अपने अकाऊँट में जमा किए हैं उतना ही सुकून व सुख-समृद्धि जीव को प्राप्त होती है। पिछले जन्मों में हमने क्या किया? हम नहीं जानते पर यह जन्म तो हमारे समक्ष है। यदि अब हम सचेत हो जाएँ और अगले जन्म के लिए कुछ पुण्यों को अपने खाते में जोड़ लें तो आगामी जन्मों में अपना जीवन सुविधा सम्पन्न बना सकते हैं।
           यह मानव जन्म बहुत ही कठिनाई से मिलता है। न जाने किन किन तूफानों को पार करके यह नर तन मिलता है इसे यूँ ही व्यर्थ न गंवाएँ।
         'जो बीत गया सो बीत गया अब आगे की सुधी लो' को ध्यान में रखते हुए अभी से आत्मचिन्तन आरम्भ कर दें। लोक एवं परलोक दोनों को ही सुधारने के लिए कटिबद्ध हो जाएँ। कठिन कुछ भी नहीं है बस अपनी इच्छाशक्ति को जगाना है। शेष ईश्वर शुभ करेगा।
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