सोमवार, 17 अगस्त 2015

अहम की पतंग

अपने अहम की पतंग बनाकर मैंने
अब उड़ा दी है रे देखो दूर गगन में

नहीं है कोई भी बराबर मेरे जग में
मजा आ गया सबको धूल चटा दी

सबको काट-काटकर फैंक दिया है
इसीलिए यह नव निर्माण किया है

अपना एक मुकाम जग में बनाया है
अब तो बस मैं हूँ और बस मैं ही हूँ

किसकी हस्ती है मुझे छूकर जाए
समझूँ किसको, मैं राजा हूँ जग का

दिखाई देते मुझको सब बौने-बौने
भय नहीं डराता मुझको किसी का

मसल करके रख दूँगी चुटकी में ही
जब कोई  मुझको आँख दिखाएगा

सब झुककर सलाम करेंगे मुझको
सोच-सोच कर मैं आह्लादित मन में

ओफ्फ यह क्या हो रहा है मुझको
हवा में हिचकोले खाती लड़खड़ाती

मैं अब नीचे धरती पर गिरती जाती
आँखें खुलीं तो देखा सपना था यह

बार-बार मालिक को किया स्मरण
बचा लिया उसने था मुझको सच में

पाले थी जो भरम मैं मन के कोने में
भुला दिया क्योंकर था अपनेपन को

आसमान में जो ऊँचा उड़ता जाता है
पल भर में ही वह नीचे गिर जाता है

सभी मेरे हैं और हूँ मैं सब मित्रों की
इतनी ही तो सीख हमारे पुरखों की

बोलो कब कोई अहंकारी बच पाया
इस जग की ही है यही रीत निराली
चन्द्र प्रभा सूद
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