बुधवार, 12 अगस्त 2015

हमारा संपर्क अनेक लोगों से

इस जीवन में हमारा सम्पर्क जाने-अनजाने अथवा चाहे-अनचाहे बहुत से ऐसे लोगों से होता है जिनमें से कुछ हमारे प्रिय बन जाते हैं और कुछ को ढोना हमारी मजबूरी होती है। इस विषय पर यदि विचार करने बैठे तो शायद इस सबका कारण हमें समझ में आ सकता है।
         घर-परिवार, माता-पिता, भाई-बहन और नाते-रिश्तेदार हमें हमारी इच्छा से हमें नहीं मिलते बल्कि उपहार के रूप में मिलते हैं। पड़ोसियों का चुनाव भी हम नहीं कर सकते। ये सभी संबंध हमें हमारे पूर्वजन्म कृत कर्मों के आधार पर मिलते हैं। हम मानते हैं कि ये सभी सुख-दुख व लेन-देन के संबंध हैं। पूर्वजन्मों में किसका देना है या किससे लेना है, किसी को हमने कष्ट दिया या किसी ने हमें कष्ट दिया, उनका भुगतान इस जन्म में करना होता है।
         इस बात को हम इस प्रकार समझ सकते हैं। अपने आसपास हमें सब प्रकार के उदाहरण मिल जाएँगे। हम देखते हैं कि किसी परिवार में कोई अपंग बच्चा पैदा हो जाता है जिसकी सेवा सारे परिवार को इच्छा से या अनिच्छा से आजन्म करनी पड़ती है। इसी प्रकार कोई रोगी बच्चा पैदा होता है जिसका इलाज कराने में घर का सब कुछ बिक जाता है। इसका अर्थ यही है कि उनकी सेवा करके या उनका कर्ज चुकाकर ही मुक्ति मिलती है।
         कुछ लोग सारा जीवन मस्त रहते हैं यानि कि कोई जिम्मेदारी नहीं, किसी से कोई लेना नहीं कोई देना नहीं। परन्तु कुछ लोग होश सम्हालते ही जिम्मेदारियों का बोझ उठा लेते हैं और सारा जीवन वे इससे मुक्त नहीं हो पाते। उस पर भी सबकी नाराजगी झेलते हैं।
         पड़ोसियों के संबंध में ऐसा ही कह सकते हैं। कई लोगों को पड़ोसी ऐसे मिलते हैं जो अपने सगे संबंधियों से भी बढ़कर होते हैं। कुछ लोगों को ऐसे पड़ोसी मिलते हैं जिनके साथ किसी-न-किसी बात पर टकराहट हो जाती है। गाहे-बगाहे उनके साथ तू-तू, मैं-मैं होती रहती है।
        हाँ, मित्र हम स्वयं बनाते हैं। उनका चुनाव हम स्वेच्छा से करते हैं। पर यहाँ भी पूर्व जन्म के संबंधों का आधार ले सकते हैं। पूरे विश्व अथवा देश की बात नहीं पर जहाँ हम रहते हैं, पढ़ते हैं या कार्य करते हैं वहाँ भी तो बहुत सारे लोग होते हैं उन सभी लोगों में से उसी खास व्यक्ति के साथ ही हमारा मित्रता का संबंध क्यों बना अन्यों के साथ क्यों नहीं?
         कभी-कभी कोई अनजान व्यक्ति हमें अच्छा लगने लगता है और कभी-कभी किसी ऐसे व्यक्ति को देखकर हम नफरत करते हैं जिसे हमारी जान-पहचान तक नहीं होती। चलते चलते कभी-कभी किसी से टकराराना कष्टदायी हो जाता है, जीवन भर का नासूर बन जाता है। इसके विपरीत अचानक हुई मुलाकात जीवन भर के लिए मीठी यादें छोड़ जाती है।
        स्कूल कालेज में पढ़ते हुए हम अनेक अध्यापकों व बच्चों से मिलते हैं पता नहीं वे कहाँ से आए होते हैं। उनके साथ कुछ तो पूर्वजन्म का संबंध होता है जो इस प्रकार उनसे मिलना होता हैं। ऐसे ही हम अपने कार्यक्षेत्र के विषय में भी कह सकते हैं।
           हम सभी धर्म भीरु हैं। इसीलिए यह कहकर लोग संतोष कर लेते हैं कि सब भाग्य का खेल है। भाग्य में जो कुछ लिखा है उसे भोगना ही है उससे छुटकारा संभव नहीं है। चाहे उसे हम हंसते हुए भोगें या रोकर। यह भोग भोगना हमारी नियति है। हमारे साथ इन लोगों का संबंध जुड़ने का कारण भी यही है कि हम अपने अच्छे या बुरे जो भी कर्म हैं उनको भोगकर अगले जन्म के लिए नए पड़ाव की ओर चलें।
चन्द्र प्रभा सूद
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