गुरुवार, 6 अगस्त 2015

वृद्ध छतनार वृक्ष

एक नन्हे से शिशु का जन्म जब घर में होता है तब हम सब बहुत प्रसन्न होते हैं। उसके आने पर हम उत्सव मनाते हैं। बन्धुओं और मित्रों को दावत देते हैं। इसका कारण है कि वह नवागन्तुक हमारे सपनों की मूरत होता है। उससे हमारी सारी आकांक्षाएँ और हमारे सपने जुड़े होते हैं।
         उसको पल-पल बढ़ते हुए देखकर हम उसमें अपना बचपन जीते हैं। हमारा सारा जीवन उसके इर्द-गिर्द चक्कर काटता रहता है। उसकी उन्नति से हम प्रसन्न होते हैं। उसके कष्ट में हम परेशान होते हैं। हम अपने सपने उसके माध्यम से पूरे करना चाहते हैं। वह हमारे इस जीवन का आधार होता है।
          अपने बच्चों के लिए यह सब करते हुए हम यह सोचते हैं कि जब हम अशक्त होंगे अथवा वृद्ध होंगे तब वह हमारी लाठी बनेगा। बड़ा होकर वह हमारा ध्यान उसी प्रकार रखेगा जैसे हम उसका रखते हैं।
          दूसरी ओर घर में बैठे बड़े-बजुर्गों से कोई आशा नहीं होती इसलिए उनकी ओर उतना ध्यान नहीं दिया जाता जितना देना चाहिए। वृद्धावस्था के कारण वे अशक्त हो जाते हैं। पहले की तरह वे अपने कार्यों को उतनी चुस्ती से नहीं कर पाते। उन्हें अपने बच्चों के मजबूत कांधों की आवश्यकता होती है। उस समय बच्चों की तरह उनको देखभाल की आवश्यकता होती है।
         यदि उनके अपने बच्चे भी उनकी ठीक तरह से देखभाल नहीं करेंगे तो फिर वे किससे आशा रख सकेंगे। बहुत से घरों में वे भार की तरह माने जाते हैं। उस समय मनुष्य भूल जाता है कि वे भी उसके माता-पिता हैं। उन्होंने भी उन बच्चों से वैसी ही उम्मीद लगाई थी जैसी वे अपने बच्चों से लगा रहे हैं। इस अन्तर को यदि सभी बच्चे समझ लें तो बजुर्गों के प्रति अपने दायित्वों से वे कभी भी मुँह नहीं मोड़ सकेंगे।
       एक ही घर में बच्चों और बड़ों के प्रति किए गए व्यवहार में इतना अन्तर तो हर किसी को स्पष्ट दिखाई देता है।
        न जाने समय कब करवट बदल लेता है। ये बच्चे बड़े होकर अपना एक अलग ही घोंसला बना लेते हैं। माता-पिता के उन सारे सपनों को और अरमानों को चकनाचूर करते हुए वे रोजी-रोटी, व्यवसाय अथवा किसी भी अन्य कारणवश अपने ही देश में अन्यत्र या विदेश में कहीं भी चले जाते हैं।  इंसान चाहे या न चाहे पर अपने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए यह सब तो उसे करना ही पड़ता है। इसके लिए किसी को भी दोष नहीं दिया जा सकता। यह सब तो विधि का विधान है। सब मनुष्य के अन्न-जल पर निर्भर करना है। उसकी कर्मस्थली उसे वहाँ बुला लेती है।
       यह सृष्टि का क्रम है कि आज जो बच्चे हैं वे आने वाली पीढ़ी के लिए माता-पिता होंगे। इसी प्रकार उनके बच्चे अपनी भावी पीढ़ी के माता-पिता बनेंगे। आज की पीढ़ी के माता-पिता एक छतनार वृक्ष की भाँति हैं जो घर-परिवार को छाया और आशीर्वाद की अपनी पूँजी देते हैं। उनकी छत्रछाया में अनेक नए बच्चे रूपी बीज अंकुरित होते हैं। ऐसे उन गहरी जड़ों वाले वृक्षों को भी सहारे की आवश्यकता होती है। अत: उनके प्रति सदा ही सहृदयता का व्यवहार करना हर मनुष्य का कर्त्तव्य है। उनकी उचित देखभाल, उनकी सेवा-सुश्रुषा करना और उनकी दैनन्दिन आवश्यकताओं की पूर्ति करना बच्चों का परम कर्त्तव्य है। इस जिम्मेदारी से मुँह मोड़कर उन्हें अपयश का भागीदार बनने से बचना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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