रविवार, 23 अगस्त 2015

धन की उपादेयता

अर्थ यानि धन की हम सब के ही जीवन में बहुत उपादेयता है इसके बिना जीवन नरक के समान कष्टदायक हो जाता है। छोटे-से-छोटा और बड़े-से-बड़ा कोई भी कार्य इसके बिना सम्भव नहीं हो पाता। इसको कमाने के लिए बहुत यत्न करने पड़ते हैं। दिन-रात कोल्हू के बैल की तरह जुटे रहकर अथक परिश्रम करना पड़ता है।
          जिस धन को कमाने के लिए हम अपना सारा सुख-चैन गंवा देते हैं वह कभी किसी का होकर नहीं रहता। कबीरदास जी कहते हैं-  'माया महा ठगिनी हम जानी।'
        कबीर जी के कहने का तात्पर्य है कि यह माया बहुत ही बड़ी ठग है और बहुत चंचल है। इसका कोई स्थायी निवास नहीं है। यह स्वेच्छा से कहीं भी चली जाती है। किसी की गुलाम बनकर भी नहीं रहती है। कोई भी व्यक्ति इसे अपनी तिजोरी में ताला लगाकर न रख सकता है और न ही रोक सकता है। न ही कोई मनुष्य यह दावा कर सकता है कि सात पुश्तों के लिए जो धन उसने जोड़-तोड़ करके जमा कर लिया है वह सुरक्षित रह पाएगा। यह सबको झाँसा देती रहती है। आज यह लक्ष्मी राजा के पास है तो कल उसे कंगाल बनाते हुए रंक के पास चली जाएगी और उसे मालामाल कर देगी।
          धन की इन्हीं विशेषताओं को देख व समझकर चेतावनी देते हुए महान विचारक हमें समझा रहे हैं-
          पूत कपूत तो का धन संचै।
          पूत सपूत तो का धन संचै॥
इन पंक्तियों का अर्थ है यदि सन्तान योग्य होगी तो अपनी मेहनत से धन कमा लेगी। आपकी कमाई धन-सम्पत्ति को बढ़ा लेगी। इसलिए धन को कमाने के लिए मारामारी मत करो। अपनी ईमानदारी व सच्चाई के रास्ते पर चलते रहो। इसके विपरीत यदि संतान अयोग्य होगी या कपूत होगी तो खुद तो कमाएगी नहीं पर आपका कमाया धन व्यसनों में अवश्य बरबाद कर देगी। ऐसी स्थिति में आप नाजायज तरीकों से धन कमाने का विचार त्याग दो।
        धन के पीछे अपना सुख-चैन गंवाकर दिन-रात दीवानों की तरह मत भागो, यह साथ भी नहीं निभाएगा। धन जिस समय घर में आता है तो सुख और समृद्धि अपने साथ लेकर आता है। इसे दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि पैसा बोलने लगता है।
         इसके विपरीत जब किसी के घर में धन जायज-नाजायज किसी भी तरीके से आता है तो अपने साथ बहुत सारे व्यसनों और बुराइयों को लेकर आता है। ये कुटेव उसके घर की जड़ों तक को हिला देते हैं। तब से उस व्यक्ति की बरबादी की कहानी आरम्भ हो जाती है।
          जैसी कमाई करोगे वैसा ही अन्न घर में आएगा। तभी मनीषी हमें समझाते हैं-  'जैसा खाओगे अन्न वैसा होगा मन।'
सात्विक अन्न खाकर बच्चे सुसंस्कारी व आज्ञाकारी बनते हैं। माता-पिता, घर-परिवार व बन्धु-बान्धवों सबकी उम्मीदों पर खरे उतरते हैं।
         दूसरी ओर पापकर्म से कमाए अन्न को खाकर बच्चे संस्कारवान नहीं बनते बल्कि उद्दण्ड होते हैं। वे नैतिक-अनैतिक सभी प्रकार के ही कार्यों में संलिप्त रहते हैं। इन बच्चों से सदैव शुभ की कामना नहीं की जा सकती।
        धन हमारी सभी आवश्यकताओं का पूरक है पर सब कुछ नहीं है। इससे हम भौतिक सुख-साधन एकत्र कर सकते हैं पर स्वास्थ्य, प्रेम, जीवन, आज्ञाकारी संतान व रिश्ते-नाते नहीं खरीद सकते।
           अपने बच्चों को संस्कारी व योग्य बनाइए ताकि अपनी आवश्यकताओं को वे स्वयं के बूते पर पूर्ण कर सकें उन्हें आपके पैसे की जरूरत ही न हो। अन्यथा आप कितनी भी समृद्धि उनके लिए छोड़कर जाइए वे यही कहेंगे कि हमारे माता-पिता ने हमारे लिए किया क्या है?   
       अपने जीवन में सदाचरण से कमाकर अपनी सारी इच्छाओं को पूर्ण कीजिए। परिवार का भरण-पोषण और अतिथि सत्कार करके मानसिक सुख व शांति प्राप्त करने का यत्न कीजिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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