बुधवार, 5 अगस्त 2015

दूसरों के महल देखकर

दूसरों के सुन्दर महल देखकर ईर्ष्या करके अपने मन को अकारण व्यथित नहीं करना चाहिए। किसी मनुष्य को उसके भाग्य से ज्यादा और समय से पहले कुछ नहीं भी मिलता। यदि इस थ्योरी पर हम विश्वास करते हैं तो भी हमें अनावश्यक रूप से दूसरों की उन्नति और अपनी तंगहाली पर शर्मिंदा नहीं होना चाहिए।
          कोई भी इसे उचित नहीं कहेगा कि दूसरे का महल देखकर हम अपने झोंपड़े को अग्नि के हवाले कर दें। इसीलिए किसी सयाने ने हमें समझाते हुए कहा है-
      देख पराई झोंपड़ी मत ललचावीं जी
      रुखी सुखी खाए के ठंडा पानी पी॥
अर्थात दूसरों के ऐश्वर्य को देखकर अपना मन को नहीं ललचाना चाहिए। अपने भाग्य अथवा पुरुषार्थ से जो भी रूखा-सूखा मिले उसे खाकर और ठंडा पानी पीकर संतोष करना चाहिए।
          कोई कितने व्यंजन खाता है, कितने प्रकार के सुखों का भोग करता है? किसी के पास कितनी गाड़ियाँ हैं? कितने नौकर-चाकर हैं? इस सबको नगण्य (इग्नोर) करते हुए मनुष्य को सदा अपने पुरुषार्थ पर विश्वास करना चाहिए। जो भी हम प्राप्त करना चाहते हैं उसके लिए ईमानदार यत्न करना चाहिए। बारबार प्रयास करने और ईश्वर के न्याय पर भरोसा करके ही मनुष्य अपना मनचाहा पा सकता है।
            यह तो स्पष्ट है कि अपने भाग्य से जो भी हमें मिला है उसी पर संतोष करते हुए ईश्वर का धन्यवाद करना चाहिए। अनावश्यक ही भाग्य को कोसने अथवा उस मालिक को दोष देने से कुछ भी नहीं होगा। वह बड़ा न्यायकारी है और किसी के साथ अन्याय नहीं करता।
           जो भी अच्छे या बुरे कर्म हम करते हैं उसी के अनुसार ही हमें फल मिलता है। कारण यह है कि कर्म करने में हम स्वतन्त्र  हैं। जब हम सत्कर्म करते हैं तब ईश्वर को धन्यवाद देते हैं। परन्तु जब हम कुकर्म तब हम अपने मन के राजा होते हैं।
      हमें किसी का डर नहीं होता। हम सारी दुनिया को अपनी मुट्ठी में करने, उसे आग लगा देने आदि की बात करते हैं। किसी की जान ले लेना, किसी का अपमान करना तो खेल बन जाता है। उस समय हम भूल जाते हैं कि इन सब का परिणाम भुगतना पड़ता है। सांसारिक न्यायालय से प्रमाणों के अभाव में बरी हो सकते हैं पर उस परम न्यायाधीश की अदालत से सजा पाए बिना नहीं बच सकते। क्योंकि वहाँ किसी गवाह या सबूत की आवश्यकता नहीं होती।
        इसीलिए ऋषि-मुनि और विद्वान हर कदम सम्भाल कर रखने का परामर्श देते हैं। यदि समय रहते हुए हम चेत जाएँ तो उस प्रभु के कोप से बच सकते हैं। उसकी बेआवाज लाठी हमें दुखों की ओर नहीं ले जाएगी।
         अपनी सुख-समृद्धि के रास्ते का रोड़ा हम स्वयं हैं। जब हम समाज विरोधी गतिविधियों में लिप्त होते हैं तभी उनका परिणाम न चाहते हुए दुखों के रूप में ही भुगतते हैं। हम अभावग्रस्त जीवन जीने के लिए विवश हो जाते हैं।
          यही कारण है कि संसार में इतनी असमानता है। कोई बहुत सुन्दर है, कोई मृत्यु पर्यन्त स्वस्थ रहता है, कोई जीवन में सुविधाओं का भोग करता है, कोई उच्च पद पर आसीन है, कोई हर प्रकार से सुखी जीवन जीता है।
        इसके विपरीत कोई कुरूप है, दो जून रोटी भी नहीं खा सकता, कोई जन्मजात रोगी है, किसी को जीवन भर लानत झेलनी पड़ती है, कोई अभावों में एड़ियाँ रगड़ते मरता है।
          हमें सदा अपने कर्मों पर ध्यान देना चाहिए दूसरों से कभी ईर्ष्या-द्वेष नहीं करना चाहिए। उनकी समृद्धि को देख यथासंभव सत्कार्यों की ओर प्रवृत्त होना चाहिए ताकि आगामी जन्मों हमें भी मनचाहे ठाठ मिल सकें।
चन्द्र प्रभा सूद
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