सोमवार, 10 अगस्त 2015

ईश्वर के पास जाने में डर

ईश्वर के पास जाने के नाम से ही हमारा मन क्यों घबराने लगता है? यह एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण और विचारणीय प्रश्न है। हम सब जानते हैं कि यह संसार मरणधर्मा है। जिसका जन्म यहाँ होता है उसे अपनी आयु भोगकर इस संसार से विदा होना पड़ता है। फिर भी हम मृत्यु का नाम नहीं सुनना चाहते। जहाँ मौत शब्द आता है हम उसे सुनकर डर जाते हैं कि जैसे वह अभी भागकर हमारे पास आ जाएगी।
          पहले हम यह विचार करते हैं कि मनुष्य की निश्चित आयु कितनी है? मनुष्य की निश्चित आयु वही है जो हमारे पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार ईश्वर ने हमारे लिए निर्धारित की है। जो आयु निश्चित करके ईश्वर जीव को इस संसार में भेजता है वह जब पूर्ण हो जाती है तब उसे यहाँ से विदा होना पड़ता है। इसमें जीव की इच्छा या अनिच्छा का कोई मतलब नहीं होता।
         इस असार संसार में आने के बाद मनुष्य अपने यहाँ आने का उद्देश्य ही भूल जाता है। कुछ समय के लिए मिले हुए इस जीवन पर अपना अधिकार मानता हुआ वह मनमानी करने लगता  है। हर प्रकार के कर्म-कुकर्म करने में हिचकिचाता नहीं।
         मनुष्य इस संसार में आने से पहले ईश्वर से बहुत से वादे करता है, कसमें भी खाता है पर यहाँ आते ही वह सब कुछ भूल जाता है। वह वादों को याद नहीं रख पाता और अपनी कसमें तोड़कर इतराता फिरता है। इसलिए वह उन पर अमल भी नहीं कर पाता। फिर वह धीरे-धीरे ईश्वर से विमुख होता जाता है। उसकी यही बेरुखी उसके डर का कारण बनती है। उसके सिर पर मौत की तलवार हर समय लटकी रहती है जिसे वह उतार फैंकना चाहता है। उसी के लिए सारे प्रपंच करता है। उससे बचने के लिए धर्म का प्रदर्शन करता है। इंसानों की आँखों में तो वह यदा कदा धूल झौंकता ही है भगवान को भी धोखा देने से बाज नहीं आता। जब मनुष्य ऐसे कर्म करेगा तो उसके मन में डर तो घर बनाकर बैठ ही जाएगा।
         डर को दूर भगाने के लिए मनुष्य को देश, समाज, धर्म और घर-परिवार के नियमों के अनुकूल कार्य करने चाहिएँ। इस प्रकार के कार्यों को करने से मन में उत्साह बना रहता है। जब गलत काम नहीं किया जाएगा तो मन में ग्लानि का भाव भी नहीं आएगा। सबसे बढ़कर मन प्रसन्न रहेगा।
         ईश्वर उन्हीं लोगों से प्रसन्न होता है जो बिना भेदभाव के उसके बनाए हुए सब इंसानों के साथ सदा समानता का व्यवहार करते हैं। किसी का दिल दुखाने की भूल नहीं करते। अपने कार्यों के संपादन करने में किसी लालच अथवा डर के शिकार नहीं बनते। सच्चे मन से सबकी भलाई और उन्नति करने के लिए प्रयासरत रहते हैं, ढोंग नहीं करते।
        अबू बिन आदम की कथा जो कभी बचपन में पढ़ी थी इस प्रसंग में याद आ रही है। कथा इस प्रकार थी कि जब अबू बिन आदम की मौत हुई और देवदूत उन्हें लेने आए तो लिस्ट में उन अच्छे मनुष्यों में सबसे ऊपर उनका नाम था जो ईश्वर को प्रिय थे। उन्होंने आए हुए देवदूत से पूछा कि मेरा नाम सबसे ऊपर क्यों है? मैं तो ईश्वर की भक्ति ज्यादा नहीं करता। देवदूत ने उनसे कहा कि तुमने अपने सारे जीवन में लोगों की निस्वार्थ सेवा की है। इसीलिए ईश्वर के प्रिय जनों में सबसे ऊपर है।
         इसलिए जब तक शरीर स्वस्थ्य है, मृत्यु दूर है तब तक ऐसे कार्य कर लेने चाहिएँ जो हमें ईश्वर का प्रिय बना दें। हमारे मन में किसी तरह का कोई भय न रहे और हम निडर होकर मृत्यु के पश्चात उस प्रभु के पास जा सकें।
चन्द्र प्रभा सूद
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