शनिवार, 29 अगस्त 2015

बेटियों की माता-पिता के प्रति चिन्ता

बेटियाँ सोचती हैं कि उनके माता-पिता की यदि उचित देखभाल हो तो वृद्धाश्रमों (old homes) की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। यदि बेटे उनकी सेवा नहीं कर सकते तो वे अपने माता-पिता की सेवा कर पाएँ। हर बेटी को अपने माता-पिता से बहुत ही प्यार होता है। वह उन्हें कष्ट में नहीं देख सकती। यदि वे कष्ट में होते हैं तो वह बेचैन रहती है उसका मन किसी काम में नहीं लगता। वह उनकी हर प्रकार से देखभाल करना चाहती है।
          हमारे समाज का ढाँचा कुछ इस प्रकार का है जिसमें बेटों को ही माता-पिता की देखभाल व सेवा-सुश्रुषा का दायित्व निभाना होता है। माता-पिता संस्कार वश बेटी के घर न रहना चाहते हैं और न ही  उनसे आर्थिक मदद लेना चाहते है। अपनी इस जिम्मेदारी को बेटे निभा पाते हैं या नहीं। यदि नहीं निभाते तो क्यों? यह विचारणीय है।
         वृद्धावस्था में जब शरीर अशक्त होने लगता है तब मनुष्य को किसी अपने के मजबूत कन्धों के सहारे की आवश्यकता होती है। जिन परिवारों में बेटे माता-पिता की सुविधाओं का पूरा ध्यान रखते हैं, उनकी अच्छी तरह से देखभाल करते हैं, उनके स्वास्थ्य पर नजर रखते हैं वहाँ तो सब ठीक-ठाक रहता है।
          इसके विपरीत जहाँ बजुर्गों को सदा ही अनदेखा किया जाता है वहाँ समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। जो माता-पिता अपने सभी बच्चों का पालन-पोषण व शिक्षा-दीक्षा कराते हैं, उनकी सारी आवश्यकताओं को पूरा करते हैं, उनको सारे बच्चे मिलकर पाल नहीं सकते। उनको बुढ़ापे में असहाय छोड़ देते हैं। उन्हें पैसे-पैसे का भी मोहताज बना देते हैं। कैसा दुर्भाग्य है यह?
          बेटियाँ जब अपने भाइयों को माता-पिता की अवहेलना करते देखती हैं तो उनके मन में पीड़ा होती है। वे चाहती हैं कि वे अपने माता-पिता का दायित्व उठाएँ। हालाँकि बहुत-सी बेटियाँ अपने माता-पिता की धन से सहायता करती हैं, उनका ध्यान भी रखती हैं और उनको मानसिक रूप से अहसास कराती हैं कि वे उनके साथ हैं।
         परन्तु यह तो समस्या का समाधान नहीं है। हर बेटी को विवाह के पश्चात अपने ससुराल जाना होता है। उसे वहाँ माता-पिता के रूप में मिले सास-ससुर मिलते हैं। बहू बनते ही उसे अपने पति के माता-पिता की ढेरों कमियाँ दिखाई देने लगती हैं। वह भूल जाती है कि उसके माता-पिता भी किसी के सास-ससुर हैं। वे भी अपनी बहू की आँखों में खटक सकते हैं। यदि इस चेन में थोड़ा परिवर्तन कर लिया जाए तो बहुत-सी समस्याएँ स्वयं ही सुलझ जाएँगी।
          अन्य समस्याओं के साथ यह भी एक समस्या है कि शादी के पश्चात बेटों को भी अपने माता-पिता में कमियाँ दिखाई देने लगती हैं। जिन माता-पिता ने उन्हें पाल-पोसकर बड़ा किया और योग्य बनाया, वे ही अब अनकी आँख में किरकिरी की तरह खटकने लगते हैं। अपने सास-ससुर उन्हें अच्छे लगते हैं अपने माता-पिता नहीं। जबकि अपने माता-पिता की वे सारी धन-दौलत चाहते हैं पर जब उनकी सेवा करने का समय आए तो कोई और उन्हें देखे। ऐसी सोच की कोई भी प्रशंसा नहीं कर सकता।
         पारिवारिक ढाँचे में ऐसा व्यवहार तो किसी भी तरह से फिट नहीं बैठता। बेटियाँ यदि अपने सास-ससुर को माता-पिता की तरह मानकर उनकी कमियों और उनकी रोकटोक को नजरअंदाज कर लें तो बहुत सुधार हो सकता है। बेटियाँ जब अपने माता-पिता की नापसंद बातों को सहन कर सकती हैं और न चाहते हुए मानती भी हैं तो सास-ससुर की बातों पर झिकझिक क्यों होती है?
           संयुक्त परिवारों के रहते वृद्धों की देखभाल की समस्या नहीं होती थी परन्तु एकल परिवारों के चलते यह समस्या विकराल रूप लेती जा रही है। यदि बेटा- बहू, बेटी-दामाद सभी अपने-अपने दायित्वों का निर्वहण करें और घर के बजुर्गों की सुचारू रूप से देखभाल करें तो न ओल्ड होम्स की आवश्यकता रहेगी और न  वे उपेक्षित अनुभव करेंगे।
चन्द्र प्रभा सूद
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