मंगलवार, 16 जून 2015

सूरज का दम्भ

आसमान की
खिड़की खोलकर
सुन्दर गोल-मटोल सूरज
भोलेपन से धरा को निहार रहा है
चारों ओर देखो
खुशियों का कलरव
मस्ती का आलम छाया
आपाधापी में हैं सब अपने काम की
कदम बढ़ाता ये
यौवन की ओर चला
निर्दय, क्रोधी, चंचल और
मदमस्त, लापरवाह भास्कर प्रहार करे
सिर ताने खड़ा
दहकता हुआ और
अंगारे बरसाता हुआ
भरी दोपहरी में है यह दिनकर महान
भूल गया है वह
शायद तेज के मद में
उसे भी अंत में संध्या समय
पश्चिम में जाकर ही डूब जाना होता है
नहीं रखता याद
दम्भी चमकता सूर्य
सृष्टि का जो अटल सत्य है
दुर्दान्त अंत होता है घमंडी का जगत में
अब सोच ले मूर्ख
मानव अपने विषय में तू
तेरे अहम का भी विनाश होगा
तुम तो सूर्य समान तपस्वी भी नहीं हो।

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