मंगलवार, 23 जून 2015

ओल्ड होम्स

ओल्ड होम्स की आवश्यकता भारतीय संस्कृति के अनुसार है ही नहीं। हमारे पारिवारिक ढाँचे की ऐसी परिकल्पना की गई है कि उसमें इन होम्स की जरूरत को महसूस ही नहीं किया जाता।
         हमारे ऋषि-मुनियों और ग्रन्थों ने हमें घुट्टी में पिलाया है कि माता-पिता भगवान का रूप होते हैं। वे इस संसार में लाने का जो उपकार हम पर करते हैं, उस ऋण को जीवन भर उनकी सेवा करके भी नहीं चुकाया जा सकता। मन्दिरों में न जाकर यदि बच्चे माता-पिता की सेवा-सुश्रुषा व उनकी सभी आवश्यकताओं को पूरा करते हैं तो उन्हें ईश्वर की पूजा जैसा ही फल मिलता है।
          ओल्ड होम्स ऐसे स्थान होते हैं जहाँ वृद्धावस्था में वे लोग रहते हैं जो किसी भी कारण से असहाय होते हैं या फिर उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं होता। इन होम्स में उनका ध्यान रखा जाता है। बीमार पड़ने पर इलाज कराया जाता है। अपने जैसे साथियों के साथ रहकर लोग अन्तिम समय में जीवन के दिन गिनकर व्यतीत करते हैं। वहीं पर वे खाते-पीते हैं, मनोरंजन करते हैं और अपनी यादों के सहारे रोते-बिलखते हुए अपने बचे हुए दिन पूरे करते हैं। वहाँ रहते हुए कभी वे ईश्वर से अपने असहाय होने के बारे में पूछते रहते हैं और कभी बैठे हुए अपने दुर्भाग्य पर आँसू बहाते रहते हैं।
          पश्चिमी सभ्यता में इन होम्स की जरूरत महसूस की जाती है। वहाँ की पारिवारिक परंपराएँ चरमरा रही हैं। वहाँ युवा होते ही बच्चे माता-पिता को छोड़कर अपना बसेरा बना लेते हैं। वहाँ लोग बड़ी शान से अपने अगणित विवाहों की संख्या को बताते हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि उन देशों में वृद्धावस्था में माता-पिता ओल्ड होम्स में रहने के लिए विवश होते हैं या यूँ कहें कि उनके पास कोई और चारा नहीं होता।
        उन देशों में वृद्धों की देखभाल का दायित्व सरकार पर होता है। बच्चे उन्हें यदाकदा मिलने आ जाते हैं। उनके लिए वही इक्के-दुक्के दिन त्योहार की तरह हो जाते हैं।
           भारतीय सामाजिक व्यवस्था में चार आश्रमों का विधान है-
1. ब्रह्मचर्याश्रम में पच्चीस वर्ष तक शिक्षा ग्रहण की जाती है।
2. गृहस्थाश्रम में विवाहोपरांत दायित्वों का निर्वहण किया जाता है।
3. वानप्रस्थाश्रम में अपने घर-परिवार के दायित्वों को पूर्ण करके ईश्वर की ओर उन्मुख होना होता है।
4. सन्यासाश्रम में अपने ज्ञान व अनुभव को लोगों को बाँटना होता है इसके लिए आवश्यक नहीं कि घरबार छोड़ दिया जाए। बल्कि ईश्वर की उपासना करते हुए निस्पृह जीवन व्यतीत करना होता है।
           मेरा मानना है कि वे सभी बच्चे बड़े दुर्भाग्यशाली होते हैं जो स्वप्न में भी अपने माता-पिता को वृद्धावस्था में अपने से अलग कर देने के विषय में सोचते हैं। उन्हें अपने घर से निकाल कर असहाय बना देते हैं या ओल्ड होम्स में रहने के लिए विवश करते हैं। भारतीय समाज ऐसे बच्चों को सदा लानत भेजता है और उनके लिए अपने हृदयों में दुर्भावना रखता है। 
          अपने माता-पिता की सारी सुख-सुविधाओं का ध्यान रखने वाले बच्चों को आज भी श्रवण कुमार कहकर सम्मानित किया जाता है। ऐसे बच्चों व उनके माता-पिता सभी के आदर्श होते हैं।
           सारा जीवन परिश्रम करने वाले जीवन के इस अन्तिम पड़ाव में आकर वृद्धों को अपनों से दूर परायों के साथ जीने के लिए विवश होना पड़ता है। यह स्थिति किसी भी सभ्य समाज के लिए सह्य नहीं है।

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