मंगलवार, 30 जून 2015

ईश्वर समदर्शी

ईश्वर समदर्शी है। उसकी दृष्टि में सभी जीव एक समान हैं। वह किसी भी जीव के साथ पक्षपात नहीं करता। यह तो हम इंसान हैं जो पक्षपात किए बिना मानते ही नहीं हैं। यह लोकोक्ति शायद इसीलिए कही गई है-
'अंधा बांटे रेवड़ी फिर-फिर अपनों को दे।'
अर्थात अंधे को रेवड़ियाँ बाँटने को दे दी तो वह बार-बार अपनों को ही देने लगा।
           यह कोई हंसने वाली बात नहीं है। इस विषय पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। कमोबेश हम सभी की  यही स्थिति है। हमें अपने से बढ़कर कुछ दिखाई ही नहीं देता। मैं, मेरा घर, मेरे बच्चे, मेरा परिवार- बस यहीं तक हमारी दुनिया सीमित है। इन्हीं के लिए हम जीते हैं, इन्हीं के लिए हम सोचते हैं और इन्हीं सबके लिए संसार के अच्छे-बुरे सारे कारोबार करते हैं। हम कूप मण्डूक यानि कुँए के मेंडक की तरह हैं जो उसी कुँए को अपना संसार मान लेता है जहाँ वह रहता है। वहीं पर वह खुश रहता है। उससे बाहर निकलने के विषय में वह सोच ही नहीं पाता। उसे बाहरी दुनिया से कोई लेना देना नहीं होता।
         मनुष्य को ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति कहा जाता है। उसमें ईश्वरीय गुण अपनाने की भरपूर क्षमता है पर वह उन्हें अपनाना नहीं चाहता। वह तो स्वार्थ और मोह के कारण अंधा हो जाता है। अपने पैदा किए हुए बच्चों के साथ भी वह समानता का व्यवहार नहीं कर पाता। कोई बच्चा उसे अधिक प्रिय होता है और किसी की वह शक्ल भी नहीं देखना चाहता। कभी बेटे के मोह में अपनी बेटी के साथ अन्याय कर बैठता है तो कभी झूठे अहम के कारण आपसी सामंजस्य नहीं बिठा पाता। दूसरों का हक छीनते, उनका गला काटते, भ्रष्टाचार में लिप्त होते, अनाचार-अत्याचार करते हुए न उसका दिल काँपता है और न पसीजता है। न उसके मन में समाज का डर होता है और न ईश्वर का।
           अन्तिम अवस्था में चाहे उसे अपने दुष्कर्मों पर पछतावा करना पड़े क्योंकि जिनके लिए वह सब स्याह-सफेद करता है वही प्रियजन उसका साथ नहीं निभाते। समय बीतते वह अकेला हो जाता है और उसके मन को क्लेश होता है।
         उसने छुआ-छात, जात-पात, ऊँच-नीच, अमीरी-गरीबी आदि की दीवारें खड़ी कर दी हैं। वह स्वयं नहीं जानता कि कुछ समय के लिए मिले इस मानव जीवन को वृथा गंवाकर अंतकाल में उसे पश्चाताप करने का अवसर भी नहीं मिलेगा।
        परमात्मा का अंश यह मनुष्य जब संसार में आता है तो उस ईश्वर से प्रार्थना करता है कि मुझे गहन अंधकार से मुक्ति दो। मैं दुनिया की चकाचौंध में न फंसकर तेरा ध्यान करूँगा। शायद दुनिया की हवा ही कुछ ऐसी है कि जिसके लगते ही वह अपने वचन भूल जाता है। तब दुनिया के आकर्षणों से घिरा वह प्राथमिकताओं से विमुख हो जाता है। फिर वह न तो सम रह पाता है और न समदर्शी।
         यदि मनुष्य ईश्वर की भाँति समदर्शी बन जाए तो सभी जीवों यानि पानी में रहने वाले जीवों ( जलचर), आकाश में उड़ने वाले जीवों (खेचर) तथा पृथ्वी पर रहने वाले जीवों (भूचर) के साथ एक जैसा व्यवहार करेगा। किसी को मारकर खा जाने या हानि पहुँचाने के विषय में सोचेगा ही नहीं। उनके साथ वैसा ही व्यवहार करेगा जैसा वह अपने लिए चाहता है। सब जीव उसके लिए अपने जैसे ही हो जाएँगे। यदि मानव ऐसा सब कर सके तो वास्तव में समदर्शी बन सकता है।

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