रविवार, 7 जून 2015

एक और एक ग्यारह

एक अकेला और दो ग्यारह होते हैं अर्थात उनकी शक्ति दोगुनी बन जाती है। इसका अर्थ है कि यदि मिलजुल कर किसी कार्य को किया जाता है तो उसे करने में आनन्द आता है और शीघ्र पूर्ण होता है। पर यदि मिलने वाले अधिकांश लोग छत्तीस के आँकड़े वाले हों तो निश्चित ही वे नौका को डूबो भी सकते हैं।
        सयाने कह गए हैं कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। यह बात निर्विवाद सत्य है। यह कोई विवाद का विषय नहीं है इसे हम यथावत मान सकते हैं।
           हमने इतिहास में पढ़ा है और अपने बड़े-बजुर्गों से सुना है कि चमत्कार करने वाले महापुरुष अकेले ही चलते थे। उनके अनुयायी अनेक बन जाते हैं जो उनकी कीर्ति में चार चाँद लगा देते हैं।
           जितने भी समाज सुधारक हुए हैं वे अकेले ही कठिन डगर पर चलते हुए लोगों को जागृत करने का कार्य करते रहे। इसके लिए उन्हें हर कदम पर समाज का विरोध सहना पड़ता है। स्वामी दयानन्द सरस्वती व मीराबाई ने विषपान किया। महात्मा गांधी ने गोली खाई। ईसा मसीह सूली पर चढ़ गए। भगवान बुद्ध और महावीर को अपने समय में बहुत अधिक विरोध का सामना करना पड़ा। इसी प्रकार राजाराम मोहन राय आदि समाज सुधारकों को भी अपने समय में विरोध सहना पड़ा।
          फिर भी वे सिर पर कफन बाँधकर समय की धारा के प्रवाह को मोड़ते हुए आगे बढ़ते रहते हैं। दुनिया के विरोध की परवाह न करते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहे। तभी हम इनका नाम सम्मान से लेते हैं।
          ऐसे ही सिरफिरे नरसिंह दुनिया की दिशा और दशा बदलने की सामर्थ्य रखते हैं। समाज की भलाई के लिए अपने तन, मन व धन किसी की परवाह किए बिना दिन-रात एक कर देते हैं। भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव जैसे न जाने कितने लोग अपने देश के लिए प्राणों तक की आहुति दे देते हैं।
          गुरु गोबिन्द जैसे महापुरुष अपने छोटे बच्चों को देश व धर्म की रक्षा के लिए के लिए दीवारों में जिन्दा चुनवा देते हैं।
          इसी श्रेणी में हम वैज्ञानिकों को भी रख सकते हैं जिनके अथक परिश्रम का फल हम जीवन की सुविधाओं के रूप में भोग रहे हैं। यदि वे भी हमारी तरह घर बैठकर आराम करते तो हम इतने सुखों को नहीं भोग सकते थे। आज दुनिया छोटी हो गई है और वाकई मुट्ठी में आ गई है। जिन ग्रह-नक्षत्रों के विषय में हम केवल सुना करते थे या किस्से-कहानियों में पढ़ा करते थे उन  पर आना-जाना भी इन्हीं वैज्ञानिकों के अथक प्रयासों के कारण ही आज संभव हो रहा है।
         रवीन्द्र नाथ टैगोर ने 'एकला चलो रे' शायद इसीलिए कहा था। मनुष्य इस संसार में अकेला आता है और अकेले ही विदा लेकर अगले पड़ाव के लिए चला जाता है।
          झुंड में तो भेड़-बकरियाँ चला करती हैं। शेर तो अकेला ही जंगल में निर्भय होकर विचरता है। इसी तरह शेर की तरह ऐसे साहसी व्यक्ति संसार के लिए आश्चर्य ही होते हैं। चाहे इन लोगों को सब गालियाँ दें या इनका जमकर विरोध करें पर फिर भी इन्हीं के पीछे ही चलते हैं और उनका गुणगान करते हैं।
         यह कभी न सोचिए कि हम अकेले कुछ नहीं कर सकते। सभी योजनाओं को एक ही व्यक्ति आरंभ करता है फिर उसका साथ देने के लिए बहुत से लोग साथ जुड़ जाते हैं। अतः मन में विचारे हुए कार्य को शीघ्र आरंभ करें। हो सकता है इतिहास आपकी प्रतीक्षा में पलक पांवड़े बिछाए बैठा हो।

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