शनिवार, 6 जून 2015

कौआ चला हंस की चाल

कौआ चला हंस की चाल और अपनी चाल भी भूल गया। यह उक्ति हम सबने पढ़ी होगी और शायद इसे समझने का यत्न भी किया होगा। इसका अर्थ स्पष्ट है कि हंस की नकल करने के चक्कर में कौवा अपनी पहचान खोने लगा।
           उसी प्रकार हम मनुष्य भी उस हंस रूपी परमपिता परमात्मा में एकाकार होने के सपने को संजोये न ईश्वरमय हो पाए हैं और न ही एक अच्छा इंसान बन सके हैं। स्वयं को ईश्वर बताने वाले उन तथाकथित धर्मगुरुओं के संबंध में तो चर्चा करना ही व्यर्थ है। उनमें से कुछ का हश्र तो हम सबने ही देखा है। उनके अतिरिक्त जिनके विषय में हमें जानकारी नहीं है वे भी कमोबेश वैसे ही हैं। वे सभी प्रायः धर्म के नाम पर ढोंग ही करते हैं। उनकी कथनी और करनी में जमीन-आसमान का अंतर होता है। इसीलिए उनके कथन का समाज पर प्रभाव नहीं पड़ता। जो लोग उनके साथ संबंध बनाते हैं वे उनके ज्ञान व गुणों से प्रभावित होकर नहीं अपितु केवल स्वार्थ के कारण ही जुड़ते हैं।
        स्वयं को महारथी कहने वाले उन अखाड़ों की चर्चा तो कुम्भ स्नान के समय ही उजागर हो जाती है जब उनमें अपने अखाड़े को सर्वश्रेष्ठ कहलवाने के प्रयास में अच्छा खासा वाद-विवाद होता है और लट्ठ तक चलते हैं।
           ऐसे स्वयंभू कहलवाने वालों से हम सांसारिक लोग अधिक श्रेष्ठ हैं। हम कम-से-कम ईश्वर का प्रतिनिधि होने का दावा तो नहीं करते और न दूसरों को अपरिग्रह का उपदेश देते हुए दान के नाम पर पैसा इकट्ठा करके अपने लिए गाड़ियों, धन-दौलत अथवा जमीन-जयदाद के अंबार लगाते हैं। न ही अपना विरोध करने वालों को यातनाएँ देते हैं या उन्हें मौत के घाट उतार देते हैं। ये सब मैं नहीं कह रही बल्कि समाचार-पत्रों, टीवी चैनलों और सोशल मीडिया की सुर्खियों में बहुत बार हम देख व पढ़ चुके हैं।
        इसीलिए वेद हमें चेतावनी देते हुए समझाते हैं- 'मनुर्भव'। अर्थात मनुष्य बनो। अब आप कहेंगे अच्छे भले इंसान हम हैं फिर इंसान बनने की बात कहाँ से आ गई?
         मानव बनने के गुण हैं- यम-नियम का पालन करना, असामाजिक कार्य न करना, देश व धर्म पर बलिदान होना, अपने घर-परिवार के दायित्वों का निर्वहण करना, प्रणिमात्र से प्यार करना, नफरत का व्यापार न करना, मन-वचन से एक होना आदि।
         यह सत्य है कि मनुष्य का जन्म लेकर हम इस धरा पर अवतरित हो गए हैं  पर हम मानवोचित गुणों को आत्मसात नहीं कर पा रहे। आज भी प्रायः चर्चाओं में, साहित्य रचनाओं में पहले इंसान बनो की बात होती है। जब मानवोचित गुण मनुष्य में आ जाएँगे तब उसे स्वयं को भगवान मनवाने की होड़ नहीं रहेगी और न ही धोबी के कुत्ते जैसी स्थिति रहेगी जो घर और घाट दोनों ही स्थानों पर अवांछित हो जाता है।
         हम उस हंस रूपी परमेश्वर की तरह नीर-क्षीर विवेकी तक नहीं बन पाए। उसके गुणों को भी अपना नहीं सके। उसके समकक्ष तो क्या उसका पासंग भी नहीं अपना पाए और न ही मनुष्य बन पाए। यहाँ मुझे एक सुप्रसिद्ध गीत की पंक्तियाँ याद आ रही हैं-
      लागा चुनरी में दाग छिपाऊँ कैसे घर जाऊँ कैसे?
       वो नगरी मेरे बाबुल का घर यह नगरी ससुराल
      जाके बाबुल से नज़रें मिलाऊँ कैसे घर जाऊँ कैसे?
मुझे लगता है अंतकाल में यही स्थिति होने वाली है हम सबकी। शेष ईश्वर शुभ करे।

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