शनिवार, 27 जून 2015

बतरस

दूसरों की निन्दा करने में हम सबको बड़ा ही रस मिलता है। इस रस को कहते हैं बतरस। दूसरों के राई जितने दोषों को हम बढ़ा-चढ़ाकर, नमक-मिर्च लगाकर पहाड़ जितना बड़ा बना देते हैं। इस निन्दा पुराण का वाचक महोदय तो आनन्दित होते ही हैं  और श्रोतागण भी आनन्दित होते हैं। दोनों चटखारे लेकर इसका मजा लूटते हैं।
           विद्वानों का कथन है कि दूसरों की निन्दा करने से बड़कर कोई और अवगुण नहीं है। जितनी अधिक दूसरों की निन्दा करते हैं उतने ही हम अपने दोष या पाप बढ़ाते हैं। अर्थात अपने पापों की गठड़ी उतनी अधिक बड़ी करते रहते हैं। जिसकी निन्दा करते हैं उस बेचारे को तो पता ही नहीं होता कि उसकी पीठ पीछे हो क्या रहा है। वह तो अपने जीवन के दैनन्दिन दायित्वों को पूर्ण करने में व्यस्त रहता है और हम अकारण ही अपने दोषों के बोझ को बढ़ाते हैं।
          हम अपने सारे आवश्यक कार्यों को तिलांजलि देकर बस इस क्षुद्र कार्य में व्यस्त होकर जीवन की रेस में पिछड़ते रहते हैं। अपनी जिम्मेदारियों को ठीक से न निभा पाने के लिए घर-बाहर, कार्यालय आदि में हर ओर से तिरस्कृत होते हैं।
            विचारणीय बात यह है कि इस निन्दा पुराण की मंडली में निन्दक धीरे-धीरे अपना विश्वास खो बैठता है। उसके साथी सोचने लगते हैं कि आज यह दूसरों की निन्दा हमारे सामने कर रहा है तो निश्चित ही हमारी निन्दा औरों के सामने करता होगा। चाहे उनकी निन्दा करने का कोई कारण हो या न हो पर आदत से लाचार वह कोई-न-कोई अपने मतलब की बात निकाल ही लेगा और इससे उनकी बदनामी होती रहेगी। फिर उसके वे प्रिय संगी-साथी धीरे-धीरे उससे किनारा करने लगते हैं। वह अकेला होते हुए सोचने लगता है कि उसके ऐसे किस दोष के कारण उसकी मित्रता में दरार आ गई है कि मित्रों ने उसे अकेला छोड़ दिया। वह अपनी निन्दा करने की आदत में इतना अधिक रच-बस जाता है कि अपने इस घृणित कार्य में उसे कोई दोष नहीं दिखाई देता।
         सबसे मजे की बात यह है कि पहले दूसरों की निन्दा करने में अमूल्य समय को नष्ट करने वाले साथी अंत में यह कहकर एक-दूसरे से विदा लेते हैं- 'किसी को यह बताना मत। हमें क्या लेना देना दूसरों की फिजूल बातों से। हमने तो बस प्रसंगवश यह चर्चा कर ली है। अब यह बात हम तक सभी तक सीमित रहनी चाहिए।'
           होता यह है कि जिसकी बुराइयों के पहाड़ बना दिए जाते हैं उसके पास सभी बातें कभी-न-कभी तोड़-मरोड़कर पहुँच ही जाती हैं। उस समय चुगलखोर बगलें झाँकने लगता है और व्यर्थ सफाइयाँ देने में जुट जाता है। तब उसकी बहुत किरकिरी होती है। फिर वह महाशय अपना मुँह छिपाते फिरते हैं। सोचिए क्या लाभ हुआ अपना समय व्यर्थ गंवाने और दोस्तों में बदनाम होने का?       
          सदा दूसरों की आलोचना या टीका-टिप्पणी करने में जो अपना बहुमूल्य समय हम बरबाद करते हैं उसके स्थान पर कुछ सकारात्मक कार्य करके आत्मोत्थान कर सकते हैं।
         आत्मविश्लेषण करके हम उस समय का सदुपयोग कर सकते हैं। दूसरों की निन्दा-चुगली करने के स्थान पर अपनी कमियों को ढूँढ-ढूँढ कर दूर कर सकते हैं। अपने इस मानव जीवन को व्यर्थ गंवाने के दंश से मुक्त हो सकते हैं।

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