रविवार, 21 जून 2015

वे बड़ा दम भरते हैं

वे बड़ा दम भरते हैं
कि वे हमारे हैं सदा से
बैठी अपना मन टटोलती हूँ
सच्चाई जानने की कोशिश करती हूँ

कोई झीना-सा परदा
शायद है दरमियाँ हमारे
जिसके आरपार झाँकने की
मैं नाकाम कोशिशें अब कर रही हूँ

वह खोया हुआ तार
नहीं लग रहा मेरे हाथ
जिसको ढूँढते-ढूँढते थककर
मैं अब तलक इतनी दूर आ गयी हूँ

पलटकर देखने से
सब धुँधला लगता है
मन की ये वीरानियाँ जो
मेरे गीतों में ढली हैं गुनगुना रही हूँ

आँखों की वीरानियाँ
जो आँसू बन ढुलकती हैं
सपनें बन छलती जा रही हैं
कुछ भी मेरा नहीं सोचती जा रही हूँ

मेरी नियती है शायद
चुभन का हर वार सहना
बारबार तिरस्कृत होकर फिर
जुड़ने की कोशिशों में हर बार ही बटी हूँ

मैं भी हर टूटन से
बचकर जीना चाहती हूँ
विधना की मस्ती के सारे
लेखे जोखे अब पहचान लेना चाहती हूँ।

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