मंगलवार, 12 मार्च 2019

मनुष्य का मित्र धर्म

मनुष्य का धर्म, उसका दायित्व निभाना, अपने कर्तव्य का पालन करना या अपनी ड्यूटी को सदा ईमानदारी और सच्चाई से निभाना होता है। धर्म का रूढ़ अर्थ religion को मैं नहीं ले रही, जिसके नाम पर मार-काट, दंगे-फसाद होते रहते हैं। इस धर्म के नाम पर हर दिशा में मौत का नंगा नाच होता रहता है। मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र उसका धर्म है। धर्म मनुष्य का एकमात्र ऐसा सच्चा साथी है, जो उसे कभी अकेला नहीं छोड़ता, बल्कि जन्म-जन्मान्तरों तक उसका साथ निभाता है।
           उसके शेष सभी साथी-सम्बन्धी स्वार्थ के बन्धन से बन्धे हुए हैं। उनका साथ केवल श्मशान के द्वार तक होता है। जब मनुष्य की मृत्यु होती है, तब उसके बन्धु-बान्धव उसका संस्कार करने के लिए श्मशान घाट पर ले जाते हैं। वहाँ जाकर वे इतनी प्रतीक्षा भी नहीं करते कि प्रियजन का शरीर पूर्णरूपेण अग्नि में स्वाहा हो गया है या नहीं। वे बस शरीर को अग्नि के हवाले करते हैं और कपाल क्रिया करते ही वहाँ से विदा ले लेते हैं। यहाँ बताना आवश्यक समझती हूँ कि कपाल क्रिया यदि न कि जाए तो तान्त्रिक लोग उससे कपाल साधना करते हैं।
'मनुस्मृति' में मनु महाराज कहते हैं-
     मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्ठसमं क्षितौ।
    विमुखा बान्धवा यान्ति धर्मस्तमनुगच्छति॥
अर्थात् बन्धु-बान्धव मृत (निर्जीव) शरीर को लकड़ी और ढेले के समान भूमि पर छोड़कर चले जाते हैं। वैसे ही सभी सम्बन्धी भी मुँह फेरकर चले जाते हैं। केवल मनुष्य का धर्म ही उसके साथ जाता है। अतः धर्म का सञ्चय करना चाहिए।
          इस श्लोक के माध्यम से मनु महाराज स्पष्ट कर रहें हैं कि जिस प्रकार लकड़ी या मिट्टी के सामान को व्यर्थ मानकर उन्हें पृथ्वी पर फैंककर चले जाते हैं। उसी प्रकार मनुष्य के सगे सम्बन्धी भी उसकी मृत्य के उपरान्त उससे मुँह मोड़कर चले जाते हैं। केवल उसका धर्म ही उसके साथ जाता है।इसलिए जहाँ तक हो सके अपने धर्म का पालन करना चाहिए और यत्नपूर्वक उसका सञ्चय करना चाहिए।
          'चाणक्यनीति:' में आचार्य चाणक्य कुछ अधिक स्पष्टता से कह रहे हैं-
वृक्ष: क्षीणफलं त्यजन्ति विहगाः, शुष्कं सरःसारसाः
निर्द्रव्यं पुरुषं त्यजन्ति गणिकाः,भ्रष्टं नृपं मन्त्रिणः।।
पुष्पं पर्युषितं त्यजन्ति मधुपाः दग्धं वनान्तं मृगाः।
सर्वे कार्यवशाज्जनोऽभिरमते, तत् कस्य कोवल्लभः
भावार्थ - फलरहित वृक्ष का पक्षी त्याग करते हैं, सारस जलरहित सरोवर का त्याग कर देते हैं, गणिका निर्द्रव्य पुरुष का त्याग करती है, मंत्री भ्रष्ट राजा को छोड़ देते हैं, भौंरे रसहीन पुष्पों का और हिरन जलते हुए वन का त्याग करते हैं। इस संसार में सभी लोग एक दूसरे को स्वार्थवश ही प्यार करते हैं, अन्यथा कौन किसे प्रिय है ?  
           इस श्लोक में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि इस असार संसार में कोई किसी का नहीं है। केवल स्वार्थ ही जो सबको जोड़ता है। जब स्वार्थ पूर्ण नहीं होता तो फिर रिश्ता किस लिए रख जाए? यहाँ उन्होंने अपनी बात को पुष्ट करने के लिए बहुत से उदाहरण भी दिए हैं। फल न होने पर पक्षी उस पेड़ को विदा कह देते हैं। जल न होने पर शिकार नहीं मिलता, इसलिए सारस पक्षी वहाँ से उड़ जाता है। गणिका धनहीन का त्याग कर देती है। मन्त्री भ्रष्ट राजा का त्याग करते हैं। जंगल में आग लगने पर हिरण वहाँ से भाग जाता है।
           इस प्रकार स्वार्थ के कारण जुड़े हुए रिश्ते स्वार्थपूर्ण हो जाने पर साथ छोड़कर चल देते हैं। उन्हें किसी की परवाह नहीं होती कि उनके साथ किसी ने कितना किया है। तब तो वे पीछे मुड़कर भी नहीं देखते। सामने पड़ जाने पर अजनबियों की तरह नजरें चुरा लेते हैं।
            इस सम्पूर्ण विश्लेषण का सार यही है कि मनुष्य को अपने धर्म का, अपने कर्त्तव्य का पालन बिना किसी स्वार्थ के करना चाहिए। लोगों के कहने और सुनने की परवाह उसे बिल्कुल नहीं करनी चाहिए। लोगों के कहने पर यदि मनुष्य चलने लगे तो वह अपने जीवनकाल में कुछ भी अच्छा नहीं कर सकता। मनुष्य के अन्तस् में विद्यमान जीव या आत्मा अथवा सूक्ष्म शरीर पर मनुष्य के सभी कर्मों का लेख-जोखा रहता है। यही सूक्ष्म शरीर ही अगले जन्म में साथ जाता है। उन्हीं शुभाशुभ कर्मों से मनुष्य का भाग्य बनता है। अपना इहलोक और परलोक सुधरने के लिए अपने कर्म के प्रति मनुष्य को सदैव सजग रहना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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