सोमवार, 25 मार्च 2019

स्वार्थपरता

मनुष्य दिन-प्रतिदिन स्वयं में इतना अधिक खोने लगा है कि उसे अपने पास-पड़ौस की गतिविधियों की कुछ भी खबर नहीं रहती। उसकी मानसिकता बस मैं, मेरे बच्चे और मेरा परिवार तक सीमित होने लगा है। वह उससे आगे देखना और सोचना ही नहीं चाहता। उसे लगता है कि इनसे परे जाने से उसका धन और समय दोनों ही व्यर्थ में बर्बाद हो जाएँगे। इसलिए धीरे-धीरे उस पर स्वार्थ हावी होता  जा रहा है। अपने स्वार्थ में वह इतना अन्धा होता जा रहा है कि उसे यह भी सुध नहीं है कि वह किसके द्वारा अपने स्वार्थ को साधने की कामना कर रहा है।
          शायद इसी स्वार्थ साधन के कारण किसी मनीषी ने 'गधे को बाप बनाने' वाला मुहावरा बनाया होगा। गधे को मूर्ख कहने के पीछे उद्देश्य क्या है? समझ नहीं आता। वह सबसे मेहनती होता है और दिन-रात अपने काम में जुटा रहता है। उस पर वह अपने मालिक से मार भी खाता है। जब कोई इन्सान मूर्खालाप करता है या मूर्खतापूर्ण कार्य करता है, तब उसके सभी साथी उसे गधा कहकर सम्बोधित करते हैं। इसी तरह उसे उल्लू भी कह देते हैं।
           यहाँ कौवे की चर्चा भी करना चाहती हूँ। उसकी मूर्खता तो जगत में प्रसिद्ध है। कोयल जैसा चालक पक्षी उसे बहुत सरलता से मूर्ख बना लेता है। कोयल कामचोर होती है, अपना घोंसला तक नहीं बनाती। जब बच्चों के जन्म का समय आता है, तो अपने अण्डे वह कहाँ रखे? यह समस्या उसके सामने आती है। कौवे और कोयल दोनों का रंग एक ही होता है। इसलिए कोयल अपने अण्डे कौवे के घौंसले में रख देती है। कौवा कोयल की चाल से अनजान उसके अण्डों की देखभाल करता है। बच्चों के निकलने पर भी एक जैसा होने के कारण भी कौवा कोयल के बच्चों को नहीं पहचान सकता। वर्षाकाल आने पर जब कोयल के बच्चे मधुर स्वर में गाते हैं, तब उनकी पहचान हो पाती है। बताइए इस कौवे से बड़ा मूर्ख और कौन हो सकता है?
          इस कौवे को प्रायः लोग उसकी कर्कश आवाज के लिए पसन्द नहीं करते। जब किसी के घर की मुँडेर पर वह काँव-काँव करता है, तब वे उसे कंकर मारकर उड़ा देते हैं। परन्तु कभी किसी प्रिय के आने की उम्मीद हो तो उसे रोटी डालते हैं। इस प्रकार सदा तिरस्कृत किए जाने वाले कौवे को भी मनुष्य आपनी आवश्यकता को पूर्ण करने के लिए प्रेमपूर्वक निमन्त्रण देता है। पितृपक्ष में अपने पितरों को भोजन पहुँचाने के लिए उसकी प्रतीक्षा करता है। बताइए ऐसे महामूर्ख को अपनी जरूरत के समय मनुष्य किस प्रकार आदर देता है, जबकि वैसे सदा उसे मारता रहता है।     
           कहने का तात्पर्य यह है कि केवल अपने विषय में ही सोचना उचित नहीं है। 'स्व' से ऊपर उठकर 'पर' की ओर भी ध्यान देना चाहिए। यदि सभी लोग अपने ही विषय में सोचते रहेंगे तो समाज में सभी लोग संकुचित प्रवृत्ति के हो जाएँगे। कोई किसी के बारे में नहीं सोचेगा तो समाज का पतन अवश्यम्भावी होगा। जिस समाज में हम रहते हैं, वहाँ कोई किसी की परवाह नहीं करेगा। यह स्थिति बहुत घातक हो जाएगी। इससे असामाजिक तत्त्वों को बढ़ावा मिलेगा। सबके अलग-अलग रहने से उनकी चाँदी हो जाएगी।
           समाज तो आदान-प्रदान से चलता है। कुछ हम समाज से लेते हैं और कुछ समाज हमें देता है। आपसी प्यार-मोहब्बत और भाईचारा होने पर ही समाज उन्नति करता है। इस प्रकार सामाजिक ताना-बाना या सामाजिक व्यवस्था सुचारू रूप से चलती रहती है। एक मनुष्य ही दूसरे मनुष्य के काम आता है। तभी परोपकार, सहृदयता, मानवता, भाईचारा आदि सद् गुणों का प्रसार-प्रचार होता है। अपने हृदय को विशाल बनाने से सामने वाले के हृदय पर भी उसका सुप्रभाव पड़ता है।
            मनुष्य को अपने तुच्छ स्वार्थ का त्याग करना चाहिए। तेरे या मेरे की संकुचित प्रवृत्ति को छोड़कर मनुष्य को अपने हृदय को विशाल बनाना चाहिए, जिसमें संसार के सभी जीवों के लिए दया, ममता की भावना बनी रहे।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail.com
Blog : http//prabhavmanthan.blogpost.com/2015/5blogpost_29html
Twitter : http//tco/86whejp

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें