बुधवार, 6 मार्च 2019

शान्त मन

शान्त मन मनुष्य की आत्मशक्ति होता है। मनीषी ऐसा मानते हैं कि शान्त मन में ही ईश्वर का निवास होता हैं। मन शान्त कैसे रहे? यह समझने वाली बात है। मनीषी कहते हैं जब मनुष्य अपने मन को साधता है, तभी वह शान्त रह पाता है। अन्यथा दुनिया के मकड़जाल में उलझा हुआ वह सदा अशान्त रहता है। मन का क्या है, उसे तो बस बहाना चाहिए इधर-उधर भटकते रहने का। अभी वह सबके बीच बैठा मस्ती कर रहा है और अगले ही पल बिना किसी कारण के उदास हो जाता है। फिर अपने साथ-साथ सबको ही परेशान कर देता है। सारी मस्ती पल भर में न जाने कहाँ काफूर हो जाती है?
         जल यानी पानी का उदाहरण लेते हैं। जब पानी उबलता है, तो उसका रूप बदलने लगता है। पानी भाप में बदलने लगता है। इसलिए उस जल में अपना प्रतिबिम्ब हम नहीं देख सकते। परन्तु जब यही पानी शान्त हो जाता है तो उसमें हम खुद को आइने की तरह स्पष्टता से देख सकते हैं। इसी प्रकार शान्त पानी में यदि कंकर फैंकने से वह आन्दोलित होने लगता है। उस हिलते हुए जल में भी कोई अपना प्रतिबिम्ब नहीं देख सकता। क्योंकि हिलते हुए जल में अपनी परछाई भी टेढ़ी-मेढ़ी दिखाई देगी। अतः जल का शान्त होना आवश्यक होता है।
         ठीक इसी प्रकार यदि हमारा हृदय शान्त बना रहता है, तभी हम चमत्कार कर सकते हैं। अपनी आत्मा के वास्तविक स्वरूप को निहारने में भी सक्षम हो सकते हैं। इसमें रंचमात्र भी कोई सन्देह नहीं है कि मनुष्य अपने सुनहरे भविष्य का निर्माण स्वयं ही कर सकता है। शान्त मन में ही सुविचारों का उदय होता है और कुविचारों को दूर भगाया जा सकता है। इस तरह बार-बार अभ्यास करने पर इस मन की असीम शक्तियों का जागरण होता है, उदय होता है। उन्हीं शक्तियों के बल पर मनुष्य सांसारिक जगत में कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है। इसी प्रकार आध्यात्मिक जगत में भी मनुष्य आश्चर्यजनक प्रगति करता हुआ बहुत दूर कहीं आगे निकल जाता है।
           मन को अनावश्यक भटकाने का कोई लाभ नहीं होता। जरा-सी बात को मन से लगा लेने पर मनुष्य उसका पिष्टपेषण करता रहता है। अपने मन में अनावश्यक जहर घोलता रहता है। इस प्रकार वह स्वयं अपनी ही हानि कर लेता है। क्रोधवश अथवा अहंकारवश जब मनुष्य अपनों से दूरी बनाकर उनसे विमुख हो जाता है, उस समय उसे यह अहसास नहीं होता। कुछ समय बीतने पर उसे अपनी गलती का अनुभव होता है। तब भी यदि वह अपने को सुधार लेता है तो बहुत अच्छा होता है। अन्यथा दुनिया की भीड़ में मनुष्य अकेला पड़ जाता है। अकेलेपन का यह अहसास बहुत कष्टदायक होता है। उस समय मनुष्य के पास पश्चताप करने के अतिरिक्त उसके पास और कोई चारा नहीं बचता।
          मनुष्य अपने मन को इतना अधिक पवित्र बना सकता है, जिसमें वह ईश्वर का दर्शन तक कर सकता है। मनीषी मनुष्य को समझाते रहते हैं कि शुद्ध मन में ईश्वर को देखना सरल होता है। वह मनुष्य के आडम्बर से नहीं उसके मन के भावों को छत है। वैसे तो मालिक हर मनुष्य के मन में विद्यमान रहता है। परन्तु उसे वही देख सकता है जो अपने मन को इस योग्य बना लेता है। परमपिता परमात्मा हमारे इन भौतिक चक्षुओं से नहीं दिखाई देता। उसे अपने मन के चक्षुओं के द्वारा ही देखा जा सकता है। इनसे मालिक को देखने के लिए मनुष्य को निरन्तर अभ्यास करने की आवश्यकता पड़ती है।
           जब मनुष्य मन के कहने पर चलता है, तब प्रायः उसे धोखा ही मिलता है। वह सदा शॉर्टकट की तलाश में रहता है। जहाँ मनुष्य सही मार्ग को छोड़कर शॉर्टकट की ओर कदम बढ़ाता है, उसे मजा आने लगता है। वह कुमार्ग की ओर चलने लगता है। वहाँ से चाहकर भी उसका लौटना सम्भव नहीं हो पाता। कभी वह स्वयं और कभी उसके साथी उसे लौटने नहीं देते।
          जहाँ तक हो सके मनुष्य को मन का गुलाम नहीं बनना चाहिए, उसे अपनी शर्तों पर चलना चाहिए। ऐसा करके मनुष्य उन्नति के सोपान पर चढ़ता है, अन्यथा सारा जीवन अपने लिए मार्ग ही खोजता रहता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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