शनिवार, 23 मार्च 2019

बुजुर्गों का ध्यान

ओल्ड होम्स में चैरिटी करने या वहाँ जाकर बुजुर्गों के साथ समय बिताने, उन्हें कपड़े या अन्य जरूरत की वस्तुएँ देना बहुत अच्छी बात है। परन्तु उससे पहले अपने घर मे विद्यमान बुजुर्गो को उनका यथोचित सम्मान देना आवश्यक है। उनकी सारी आवश्यकताओं को बिना माथे पर शिकन लाए पूर्ण करना पहला दायित्व है। यदि घर के बुजुर्ग किसी भी कारण से अपेक्षित रहते हैं तो फिर ओल्ड होम्स की चैरिटी केवल दिखावा बनकर रह जाएगी। उसका कोई लाभ नहीं होने वाला।
            घर में बड़े बुजुर्गों को यथोचित सम्मान मिलना चाहिए। उन्हें फालतू सामान या बोझ नहीं समझना चाहिए। उनको भी अपने जीवन में जीवित रहने के लिए कुछ चीजों की आवश्यकता पड़ती रहती है। यह नहीं सोचना चाहिए कि वे घर में रहते हैं, उन्हें खाना हम खिलाते हैं। कपड़ा आदि हम लेकर दे देते हैं, इससे अधिक उन्हें क्या चाहिए? परन्तु यह सोच सर्वथा गलत है। इन्सान जब तक जीवित रहता है, उसे रोटी और कपड़े के अलावा भी बहुत कुछ चाहिए होता है।
          आयु बढ़ने के साथ-साथ शरीर अशक्त होने लगता है। उसे किसी सहारे की आवश्यकता होने लगती है। ऐसे में यदि अपने बच्चे सहारा नहीं बनेंगे तो फिर उन्हें कौन सम्हालेगा? बुजुर्गो को इस अवस्था में अपने बच्चों के समय में से कुछ पल चाहिए होते हैं। ढलती साँझ में बुजुर्गों को बच्चों का प्यार व विश्वास चाहिए होता है कि वे उनके इस दौर में उनके साथ हैं। अकेले रहते हुए उन्हें गहराते अँधियारे से डर लगने लगता है। पल-पल अपनी तरफ बढ़ रही मौत को देखकर वे घबराने लगते हैं। यह शाश्वत सत्‍य है कि इस मौत को किसी भी तरह टाला नही जा सकता। इसलिए उन्हें अकेलेपन से बहुत घबराहट होती है। बच्चे जब कुछ पल उनके साथ बैठकर बुढ़ापे का अकेलापन बाँट लेते हैं, तब बिन दीप जलाए ही उनके जीवन की साँझ रौशन हो जाती है।
           आज की आपाधापी वाली जिन्दगी में बच्चे अपनी रोजी-रोटी के चक्कर में अपने देश में अन्यत्र रहने लगते हैं या दूर विदेश चले जाते हैं। ऐसे में वर्षों बीत जाते हैं जब माता-पिता अपने बच्चों को मिल नहीं सकते और उन्हें स्पर्श नहीं कर पाते। यह कसक उनके मन में रह जाती है कि एक बार बच्चे बचपन की तरह उनकी गोद में अपना सिर रखें और वे उसे सहला सकें। अपने बच्चों को करीब पाकर वे एक बार फिर से इतरा सकें, खुशियाँ मना सकें।
         अपने घर के विशाल हृदय वाले लोग यानी मनुष्य के माता-पिता जीवन के कल्पवृक्ष हैं। उन्हें अभागे लोग बूढ़ा और बुढ़िया कहकर उनका तिरस्कार करते हैं। इस सत्य को सदा स्मरण रखिए कि ऐसे लोग भी शीघ्र ही बूढ़े होने के करीब आ रहे हैं। इसलिए उस अवस्था की तैयारी उन्हें अभी से कर लेनी चाहिए। इसमें कोई सन्देह नहीं कि जो भी अच्छे या बुरे कृत्य मनुष्य करता है, वे देर-सवेर उसी के पास ही लौटकर आते हैं।
          वृद्धावस्था में प्रायः बुजुर्गो की इच्छाएँ न के बराबर रह जाती हैं। शरीर के कमजोर होने से पाचन क्रिया शिथिल पड़ जाती है। इसलिए उन्हें गरिष्ठ भोजन नहीं पचता। सादा भोजन ही उनके लिए ठीक रहता है। अलमारी के कपड़ों को देखकर उन्हें लगता है कि इनका क्या किया जाए? इसी प्रकार अन्य भौतिक वस्तुओं से भी दिन-प्रतिदिन उन्हें वितृष्णा होने लगती है। किसी शादी-पार्टी आदि का निमन्त्रण आए तो उनका प्रयास यही रहता है कि बच्चे चले जाएँ। जहाँ जाना बहुत ही आवश्यक होता है, वहाँ वे जाते हैं।
          बड़े-बुजुर्गो को यथोचित आदर-सम्मान देना चाहिए। उनकी सेवा-सुश्रुषा और देखभाल में कोई कमी नहीं छोड़नी चाहिए। उन्हें दिवाली आदि किसी भी अवसर पर कुछ नहीं चाहिए होता। फिर भी जब भी अपने लिए खरीददारी करने जाएँ, उनसे अवश्य पूछ लेना चाहिए कि उन्हें कुछ चाहिए क्या? प्रायः उनका उत्तर नहीं में ही होगा। परन्तु यदि उन्हें कुछ चाहिए हो तो लाकर देना चाहिए। यही उनका मान करना होता है। ध्यान रखने वाली बात है कि बड़े-बुजुर्गो की सुख-सुविधाओं का ध्यान रख करके हम उन पर कोई अहसान नहीं करते बल्कि अपना इहलोक और परलोक दोनों सुधरते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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