रविवार, 17 मार्च 2019

लक्ष्मी, कीर्ति, विद्या और बुद्धि

उस मनुष्य से अधिक और कोई बड़भागी नहीं हो सकता, जिसके पास लक्ष्मी, कीर्ति, विद्या और बुद्धि हों। यानी ये चारों मानव जीवन के महत्वपूर्ण अंग है। मनुष्य के पास धन-वैभव हो, चारों दिशाओं में उसका यश फैला हो, विद्वत्ता उसके साथ चलती हो और उसकी बुद्धि अनुशासित हो तो ऐसा व्यक्ति सौभाग्यशाली ही होता है। हर व्यक्ति इन्हें  प्राप्त  करने की प्रबल कामना करता है और उसके लिए प्रयत्न भी करता है। कुछ प्रश्न हैं जो मन में उठ रहे हैं, वे हैं - इन चारों का आधार क्या है? अथवा इन्हें कौन-सा आधार दिया गया है? जीवन में ये किस प्रकार स्थिर और स्थापित होते हैं?
         किसी कवि ने बड़ी ही समझदारी से इनके विषय में बताते हुए कहा है-
    सत्यानुसारिणी  लक्ष्मीः कीर्तिस्त्यागानुसारिणी।
    अभ्याससारिणी विद्या बुद्धिः कर्मानुसारिणी।।
अर्थात् लक्ष्मी हमेशा सत्य का अनुसरण करती है।  कीर्ति त्याग के पीछे जाती है। विद्या अभ्यास से ही प्राप्त होती है और बुद्धि पर कर्म का ही अंकुश रहता है।
          कवि का कथन है कि लक्ष्मी को सदा सत्य की संगति चाहिए होती है। परिश्रम, सच्चाई और ईमानदारी से कमाए हुए धन में बहुत बरकत होती है। ऐसी लक्ष्मी मनुष्य के लिए फलदायी होती है।
इसके विपरीत झूठ, फरेब, हेराफेरी में लक्ष्मी की कोई दिलचस्पी नहीं होती। गलत तरीके से कमाया गया धन हमेशा ही कष्टदायक होता है और वह लम्बे समय तक नहीं टिकता। जिस रास्ते से आता है, उसी रास्ते से चला भी जाता है। वह अपने साथ अनेक बुराइयाँ लेकर आता है। धन के चले जाने के बाद भी बुराइयों से बचने का मनुष्य कोई उपाय नहीं कर पाता।
         कीर्ति उनकी चेरी (दासी) बनती है। जो मनुष्य अपने देश के लिए, धर्म के लिए, परिवार के लिए और समाज के लिए निस्वार्थ भाव से कार्य करते हैं। अपने सुख-चैन की परवाह किए बिना दिन-रात सेवाकार्य में जुटे रहते हैं। कीर्ति उनके साथ-साथ अगल-बगल चलती है। कीर्ति को पैसे और सत्ता से कोई लगाव नहीं होता। पैसे के बल पर कमाया हुआ यश सतही होता है। उस धन के समाप्त हो जाने पर कोई पास आकर भी नहीं फटकता। उस समय यह खरीदा हुआ यश भी न जाने कहाँ तिरोहित हो जाता है, किस कोने में जाकर छुप जाता है।
         विद्या की देवी माँ सरस्वती अपना वरद हस्त जिस व्यक्ति के सिर पर रख देती है, वह परम विद्वान बन जाता है। उसकी तुलना किसी से नहीं कि न सकती। उसका अनुसरण करने वाले अवश्य सफलता प्राप्त करता हैं। ऐसे विद्वान मार्गदर्शक होते हैं। किसी भी विषय को पढकर, जानकर और समझकर ही विद्या को आत्मसात किया जा सकता है। नित्य अभ्यास के द्वारा ही विद्या की प्राप्ति होती है। मनीषी कहता हैं -
               अनभ्यासे विषं  विद्या
अर्थात् यदि विद्या का अभ्यास न किया जाए तो वह विष के समान हो जाती है।
          बुद्धि पूर्वजन्म कृत कर्मानुसार प्रेरणा लेती  है। बुद्धि पर सदा ही कर्म का अंकुश रहता है। बुद्धि को उपनिषदों में इस शरीर रूपी रथ का सारथी कहा गया है। इसका कार्य है शरीरधारी आत्मा या जीव को उसके लक्ष्य मोक्ष तक लेकर जाना। यह इन्द्रिय रूपी घोड़ों को वश में करती है, तभी रथ सही मार्ग पर चलता है। यदि मनुष्य की बुद्धि विपरीत आचरण करने लगे तब निश्चित ही विनाश होता है। मनीषी कहते हैं-
           विनाशकाले  विपरीत बुद्धि:
कर्म करने में मनुष्य पूर्णतः स्वतन्त्र है परन्तु उसका फल भोगने में नहीं है। जिस राह पर मनुष्य का विवेक उसे ले जाता है, उसी के अनुसार उसे फल मिलता है। यानी न भाग्य से अधिक और न ही उससे कम।
            लक्ष्मी, कीर्ति, विद्या और बुद्धि चारों मनुष्य को साधारण न रहकर विशेष बनाते हैं। यदि मनुष्य मनन करके इनके अनुसार चले तो वह सर्वत्र पूजनीय बन जाता है। परन्तु यदि मनुष्य धन-वैभव, यश, विद्या और बुद्धि के मद में आकर दुनिया को अपने समक्ष कुछ भी न समझे तो उसका पतन निश्चित होता है। इसलिए फूँक-फूंककर कदम उठाने की आवश्यकता होती है।
चन्द्र प्रभा सूद
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