शनिवार, 16 मार्च 2019

मृत्यु के पास

मनुष्य जबअपने जीवन की बाजी हारने लगता है, तब वह अपने जीवन से निराश होने लगता है। उसे अपनी जिन्दगी बोझ लगने लगती है। उस समय उसे लगता है कि उसके जीने का कोई लाभ नहीं है, उसका पृथ्वी पर जन्म लेना ही गुनाह है। वह कोई स्वप्न देखकर अथवा अपना लक्ष्य निर्धारित करके, उसे पूर्ण करने के लिए प्रयत्न नहीं करना चाहता तो वह अपने जीवन में खुशियों को प्राप्त नहीं कर सकता। फिर धीरे-धीरे वह अपने जीवन से हारकर मृत्यु की ओर कदम बढ़ाने लगता है।
          दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि उत्साह, स्फूर्ति, सकारात्मकता आदि गुण सदा मनुष्य को जीने की प्रेरणा देते हैं। इसके विपरीत निराशा, हताशा और नकारात्मकता आदि अवगुण मनुष्य को मृत्यु की ओर घसीटकर ले जाते हैं। यदि अपने जीवन में कम-से-कम एक बार मनुष्य किसी की सलाह से दूर भाग जाने की स्वयं को अनुमति नहीं देता, तब भी वह धीरे-धीरे मरने लगता है।
         ऐसे में मनुष्य अपने स्वाभिमान को कुचल देता है, उसे मार डालता हैं। वह न अपनी सहायता करता है और न ही दूसरों की मदद करने में कोई रुचि दिखाता है। उस समय उसे अन्य लोगों से मिलने-जुलने या व्यवहार रखने में कोई दिलचस्पी नहीं रह जाती। तब वह न कहीं जाना चाहता है और न ही कोई भी यात्रा करना चाहता है। वह अपने बन्धु-बान्धवों से मिलने से भी कतराने लगता है। उसका मन उखड़ा रहता है और वह सदा बेचैन रहता है।
           ऐसे लोग धीरे-धीरे भीड़ से कटकर अकेले ही जीना आरम्भ कर देते हैं। फिर वे अवसाद की ओर बढ़ने लगते हैं। इनको किसी पर विश्वास नहीं रहता, सभी लोगों को वे अपना शत्रु समझने लगते हैं। वे इस वहम का शिकार हो जाते हैं कि कोई उन्हें पसन्द नहीं करता। कभी भी, कोई भी उन्हें जान से मार देगा। इस कारण वे सदा डरकर या सहमकर रहने लगते हैं। घर-परिवार के लिए सबसे बड़ी परेशानी तब आती है, जब वे आत्महत्या जैसा जघन्य अपराध कर बैठते हैं।
           ये लोग किसी पुस्तक को पढ़ने में रुचि नहीं लेते। न वे जीवन का संगीत सुनना चाहते हैं और न ही वे किसी कलाकार की प्रशंसा करते हैं। मनुष्य अपनी आदतों का गुलाम बन जाता हैं। प्रतिदिन वाले रास्तों पर चलते हुए वे अपने दैनिक नियम तथा व्यवहार नहीं बदलना चाहते। अलग-अलग रंग के कपड़े नहीं पहनना चाहते। अजनबी और अनजान लोगों से बात करने में वे घबराते हैं। वे हर्ष-शोक आदि आवेगों को महसूस नहीं करना चाहते। उनसे जुड़ी सारी भावनाओं को वे अनदेखा कर देते हैं।
          मनुष्य मृत्यु के पास कब पहुँचता है, इस विश्लेषण का सार यही निकलता है कि जब मनुष्य जिजीविषा अर्थात् जीने की इच्छा का त्याग कर देता है। उस समय कोई दवा या कोई दुआ उसके लिए काम नहीं करती। मनुष्य संसार से, परिवार से, नौकरी या व्यवसाय से, भाई-बन्धुओं से निराश होकर उनसे मुँह मोड़ लेता है। उसे किसी भौतिक वस्तु में आनन्द नहीं आता। वह सबसे कटकर रहना चाहता है।
          यदि मनुष्य अपनी जिन्दगी को नहीं बदल सकत, तब आप अपने काम और परिणाम से वह असन्तुष्ट रहता है। उस समय मनुष्य निश्चित को अनिश्चित के लिए छोड़ने का प्रयास करने लगता है। उसकी यह प्रकृति उसके लिए हानिकारक बन जाती है। वह अपने आसपास एक ऐसा घेरा बना लेता हैं, जिसमें प्रवेश करने की अनुमति वह किसी को नहीं देता।
          अपने प्रियजन को इस विषम परिस्थिति से बचाने का यथासम्भव प्रयास करना चाहिए। जब उसमें इस तरह के निराशावादी विचार आते हुए दिखाई दें, उसे अविलम्ब किसी योग्य डॉक्टर के पास लेकर जाना चाहिए। उससे परामर्श करके उपचार आरम्भ कर देना चाहिए। उसे किसी कार्य में लगाने का प्रयास करना चाहिए। चाहे वह कार्य अध्ययन का हो, समाजसेवा का हो, बागवानी का हो अथवा उस व्यक्ति की रुचि का कोई कार्य हो। इसके अतिरिक्त उसका ध्यान ईश्वर की ओर उन्मुख करना चाहिए। उसके मन में जीने की कामना जगानी चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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