गुरुवार, 14 मार्च 2019

पिता

पिता मनुष्य के लिए वह हस्ती है जिसके बिना उसका अस्तित्व ही नहीं होता। उसके बिना मनुष्य का जीवन कष्टदायक हो जाता है। पिता को देवता का स्थान इसीलिए दिया जाता है कि वह सन्तान को इस दुनिया में लेकर आता है। बच्चों की हर सुख-सुविधा का ध्यान रखता है। स्वयं भूखा सो जाता है पर सन्तान पर आँच नहीं आने देता। ऐसे अपने पिता के लिए बच्चों को ईश्वर से सदा यह प्रार्थना करनी चाहिए -
       "हे भगवान, मेरे पिता को अच्छा स्वास्थ्य देना। उनकी सारी परेशानियों को दूर करके उन्हें हमेशा हमारे लिए सदा प्रसन्न रख़ना।"
          कहने का तात्पर्य है कि यदि पिता स्वस्थ और प्रसन्न रहेंगे तो घर में सुख-शान्ति बनी रहती है। पिता गरमी हो या सर्दी, सदा ही अपने बच्चों की रोज़ी-रोटी की फ़िक्र में परेशान रहता है। पिता के जैसा प्यार इस संसार में बच्चे को कोई नहीं दे सकता है। इस बात को सदा स्मरण रखना चाहिए कि सूरज की भाँति पिता का स्वभाव गरम अवश्य होता है, परन्तु यदि वह डूब जाए तो चारों ओर अन्धेरा छा जाता है।
          पिता यदि बच्चों को अनुशासन में रखना चाहते हैं तो उसका पालन करना बच्चों का दायित्व होता है। जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए अनुशासन बहुत आवश्यक होता है। मनुष्य जब अनुशासित रहता है तभी योग्यता प्राप्त करता है।यदि पिता की कही गई बातें ध्यान से सुनकर उन पर आचरण किया जाए तो कोई कारण नहीं है कि मनुष्य को पीछे मुड़कर देखना पड़े। दूसरे लोगों की अनचाही बातें  सुननी पड़ें। जो व्यक्ति अपने पिता का सम्मान न करके उनके समक्ष ऊँचा बोलता है, उनका तिरस्कार करता है, ईश्वर उसका प्रतिफल उसे अवश्य देता है।
          महर्षि वाल्मीकि ने 'वाल्मीकिरामायणम्' में लिखा है कि पिता की सेवा से बढकर कोई और दूसरा पुण्य नहीं है-
        नह्यतो धर्मचरणं किञ्चिदस्ति महत्तरम् ।
        यथा पितरि सुश्रुषा यस्य वा धर्मक्रिया।।
अर्थात् पिता की सेवा अथवा उनकी आज्ञा का पालन करने जैसा महत्त्वपूर्ण कार्य है, उससे बढ़कर संसार मे कोई अन्य धर्माचरण नहीं है।
           यह श्लोक हर मनुष्य को समझा रहा है कि पिता की सेवा तन, मन और धन से करनी चाहिए। उसमें आडम्बर या प्रदर्शन की कोई आवश्यकता नहीं होती। मनुष्य के सभी महत्त्वपूर्ण कार्यों में सर्वाधिक महत्त्व पिता की सेवा-सुश्रुषा का होता है। यह सत्य है कि पिता की आज्ञानुसार चलने वाले बच्चे को अपने जीवन में कभी हार का सामना नहीं करना पड़ता। वह निरन्तर प्रगति के पथ पर अबाध गति से अग्रसर रहता है।
           पिता का यथोचित सम्मान करने वालों की सन्तान प्रायः आज्ञाकारी व सुसंस्कृत बनकर नाम रौशन करती है। उनकी सन्तान भी उनके साथ वैसा ही व्यवहार करती है, जैसा वे अपने पिता के साथ करते हैं। बच्चे अपने मुँह से कुछ बोलें या नहीं, पर वे अपने माता-पिता के व्यवहार को बहुत बारीकी से परखते हैं। समय आने पर बिना लिहाज किए मुँह पर मारते हैं। पिता के आदेश को ईश्वर का आदेश मानने वाले सदा खुशहाल रहते हैं। पिता के सामने अकड़कर खड़े होने के स्थान पर अपनी नजरें झुकाकर रखनी चाहिए यानी पिता के समक्ष सदा विनम्रता का व्यवहार करना चाहिए। ऐसे व्यक्ति पर भगवान विशेष कृपा करते हैं। उसका यश दूर-दूर तक प्रसारित होता है।
         पिता का जीवन बच्चों के लिए एक खुली पुस्तक की तरह होता है। उस पर उसके अनुभव लिखे रहते हैं। उन अनुभवों का लाभ उठाने वाले इस संसार में तर जाते हैं। दूसरे लोग संसार सागर के भँवर में गोते खाते रह जाते हैं।  पिता की आँख से एक भी आँसू यदि सन्तान के दुर्व्यवहार कारण गिरता है या उसके मन को सन्तान के किसी व्यवहार से ठेस लगती है तो ऐसी सन्तान को ईश्वर उसके इस कुकृत्य के कभी क्षमा नहीं करता। उन्हें इसका अहसास किसी न किसी माध्यम से अवश्य करवाता है। इसीलिए मनीषी समझाते हैं कि जिस घर में पिता मन से प्रसन्न रहते हैं, वहाँ हर प्रकार की सुख-शान्ति विद्यमान रहती है। 
चन्द्र प्रभा सूद
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