गुरुवार, 7 मार्च 2019

प्रिय जन को पल-पल जाते देखना

जीवन में कभी-कभार ऐसे पल भी आ जाते हैं, जब अपने किसी प्रिय को असाध्य बीमारी के चलते डॉक्टर कह देते हैं कि अब इनका जीवन कुछ दिन, कुछ सप्ताह अथवा कुछ माह का ही शेष बचा है। अब इन्हें कोई दवा काम नहीं आएगी, बस ईश्वर से प्रार्थना कीजिए। इनके मन की इच्छाओं को पूर्ण कीजिए। हालाँकि यह सत्य है कि जिसका जन्म इस असार संसार में हुआ है, उसकी मृत्यु निश्चित है। परन्तु फिर भी इस प्रकार अपने प्रियजन से वियोग हो जाने की कल्पना मात्र से ही उस समय हृदय विदीर्ण होने लगता है।
           सारा समय अपने प्रियजन को आँखों के सामने देखकर केवल यही विचार सोते-जागते मन में बस जाता है कि अब क्या होगा और आगे क्या होगा? किसी भी तरह से मन इस सत्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होता। उसे कितना भी बहलाने का प्रयास क्यों न किया जाए, सब व्यर्थ हो जाता है। एक-एक पल मानो एक-एक युग की तरह लगने लगता है। ऐसा लगने लगता है कि मानो अब समय थम-सा गया है। उस समय न कहीं भी जाना अच्छा लगता है और न किसी से मिलना-जुलना भाता है।
           पल-पल अपने प्रियजन को मौत के मुँह में जाते हुए देखना वाकई बहुत कष्टकर होता है। सारा समय इस असहनीय पीड़ा को झेलना सहनशक्ति से परे होता है। इस अवस्था में मनुष्य खुलकर रो भी तो नहीं सकता। सब एक-दूसरे से नजर चुराकर बात करते हैं। सभी सच्चाई समझते हैं, परन्तु फिर भी एक-दूसरे को झूठी सान्त्वना देकर मन को अनावश्यक बहलाने का प्रयास करते रहते हैं। मन के किसी कोने से सदा यही आवाज आती रहती है कि किसी तरह कोई चमत्कार हो जाए और अपना प्रियजन हमारे पास ही रह जाए। वह बिछुड़कर हमसे कहीं दूर न जाने पाए।
          कुछ दशक पूर्व एक फ़िल्म आई थी, उसका नाम था 'आनन्द'। इस फ़िल्म में राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन जी ने अपने-अपने किरदार बखूबी निभाए थे। इसमें राजेश खन्ना जी को पता चलता है कि उनका रोग ऐसा है, जिसका इलाज अब सम्भव नहीं है। उनकी आयु कुछ ही शेष बची है। वे अपने उस थोड़े से समय का सकारात्मक उपयोग करते हैं। कभी किसी की समस्या को सुलझाते हैं, लोगों में खुशियाँ बाँटते हैं, दूसरों के मनमुटाव को दूर करने का प्रयास करते हैं और स्वयं भी प्रसन्न रहने का यत्न करते हुए सबको मोहित कर लेते हैं।
           देखने, सुनने और कहने में जहाँ तक इस किरदार की प्रशंसा की जाए उतना ही कम है। अब विचार यह करना है कि क्या वास्तविक जीवन में ऐसा हो पाना सम्भव है? मौत को दरवाजे पर दस्तक देते हुए देखकर क्या कोई व्यक्ति अधीर हुए बिना रह सकता है? उसकी मानसिक स्थिति क्या उसे सकारात्मक रहने दे सकती है?
          घर-परिवार में यदि कोई व्यक्ति कोमा में चला जाता है तो वह कष्ट भी कम नहीं होता। उस स्थिति में केवल यही अन्तर होता है कि रोगी को अपने विषय में कुछ भी ज्ञान नहीं होता। अन्य सभी बन्धु-बान्धव इस दारुण पीड़ा को सहन करते हैं परन्तु रोगी अचेतावस्था में होता है। इस स्थिति में बन्धु-बान्धवों के साथ रोगी भी असहनीय पीड़ा को भोगता है।
         परिवारी जनों और बन्धु-बान्धवों को ईश्वर से नाराजगी भी होती है। वे भूल जाते हैं कि रोगी को तो जाना ही था। अचानक वह दुनिया से विदा लेकर चला जाता तो क्या कर लेते? पर अब उनके पास समय है। वे रोगी को प्रभु से नाराज होने या उसे कोसने के स्थान पर बचे हुए समय में प्रभु की भक्ति में लगा सकते हैं। उसके हाथ से दान-पुण्य करवा सकते हैं। जिस भी रूप में ईश्वर की पूजा करते हैं, उसका नाम-कीर्तन करवा सकते हैं।
          सबको मिलकर परमपिता का धन्यवाद करना चाहिए कि उसने दुनिया से विदा करने से पूर्व कुछ समय के लिए उसे मोहलत दे दी है। उसे अपने शेष बचे हुए कार्यों को पूर्ण करने का यथासम्भव प्रयास करना चाहिए। अपने जीवन में बोनस के रूप में मिले हुए हर पल का सदुपयोग कर लेना चाहिए। इसे सेकेण्ड पारी समझकर इसको व्यर्थ नहीं गँवाना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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