शुक्रवार, 29 मार्च 2019

संसार सागर का मन्थन

यह संसार एक सागर की भाँति है। हम सभी को अपने जीवनकाल में इस समुद्र का मन्थन करना पड़ता है। पौराणिक काल में देवों और असुरों द्वारा किए गए समुद्र मन्थन की तरह ही इसमें से भी हलाहल विष और अमृत दोनों ही निकलते हैं। उस समय छल से देवताओं ने अमृत को अपने कब्जे में करके उसका पान कर लिया था। उसे पीकर फिर वे देवगण अमर हो गए थे। विषपान के लिए न देवता तैयार थे और न ही असुर। तब भगवान शिव ने स्वेच्छा से विषपान किया था। इसलिए वे नीलकण्ठ कहे जाते हैं।
           यह तो आदिकाल की बातें हैं। यह सत्य है कि आज के इस मन्थन से निकलने वाले विष और अमृत दोनों का पान हर मनुष्य को स्वयं ही करना पड़ता है। कोई भी देवता या कोई भी असुर उसकी सहायता के लिए आगे कदम बढ़ाने नहीं आता। अब विचार यह करना है कि आखिर ये विष और अमृत हैं क्या? हर मनुष्य को इनका पान क्यों करना पड़ता है? क्या अमृत पीकर मनुष्य अमर हो सकता है? विषपान करने से मनुष्य को मृत्यु मिल जाती है क्या? आखिर मनुष्य विष और अमृत दोनों का पान करने के लिए क्यों विवश हैं? इन दोनों को पीने से मनुष्य की क्या गति होती है?
          इन सभी प्रश्नों के उत्तर खोजने हमारे लिए बहुत ही आवश्यक हैं। तभी तो हम इस सत्य को ज्ञात कर सकेंगे। पहले हम विष के विषय में विचार करते हैं। इस संसार सागर में विष दुख, परेशानियाँ,  बीमारियाँ, विवाद, असफलता आदि हैं। इनको भोगते समय मनुष्य को बहुत कष्ट होता है। ये सब उसके गले की फाँस बनकर रह जाते हैं। मनुष्य को बहुत से लोग ऐसे मिलते हैं जो उसे गलत राह पर ले जाने के लिए तैयार बैठे रहते हैं। मनुष्य को स्वयं के विवेक से उन लोगों से बचना होता है। जो लोग उनसे बाख जाते हैं, वे अपना जीवन सुधारने में समर्थ हो जाते हैं।
          जो लोग उनके तथाकथित ऐश्वर्य, रुतबा आदि देखकर उनके पीछे हो लेते हैं, वे अपना सारा जीवन नरक बना लेते हैं। वे यही लोग होते हैं जो समाज विरोधी कार्य करते हैं। लूटपाट करना, चोरी करना, हेराफेरी करना, भ्रष्टाचार करना, दूसरे का गला काटने से परहेज न करना, रिश्वतखोरी करना, स्मगलिंग करना, नशे के व्यापार में लिप्त रहना आदि इनके कार्य होते हैं। कानून-व्यवस्था से आँख-मिचौली खेलते हुए इनका सारा अमूल्य समय बीतता है। ये सभी लोग और इनके सारे ही संगी-साथी अपने लिए मन्थन से हलाहल विष निकालते हैं। न ये स्वयं चैन से रहते हैं और न ही इनसे जुड़े हुए लोग। इस विषपान के कारण अपने जीवन में अनेक कष्टों और परेशानियों से ये लोग जूझते रहते हैं।
           अमृत के विषय में भी अब हम विश्लेषण करते हैं। सज्जनों की संगति अमृत तुल्य होती है। मनुष्य जब मानवोचित गुणों को अपना लेता है तो उस अवस्था में वह अमृत का पान करता है। दया, ममता, ईमानदारी, सहानुभूति, सहृदयता, परोपकार आदि गुण मनुष्य को महान बनाते हैं। समाज इन्हीं लोगों की बदौलत ही चलता है। यही लोग हैं जो समाज को उसका यथोचित देने का प्रयास करते हैं। सन्मार्ग पर चलकर जो अपने इस जीवन में मोती बटोरते हैं, वे ही अमृत का पान करते हैं। ये लोग सुखी रहते हैं और दूसरों को भी खुशियाँ बाँटने का कार्य करते हैं।
          कहने का तात्पर्य यही है कि मनुष्य अपने इस जीवनकाल में जो शुभाशुभ कर्म करता है, वही उसके जीवन मे विष अथवा अमृत प्राप्ति का कारण बनते हैं। पूर्व जन्मों में हम क्या कर्म करके आए हैं, उनके विषय में हम नहीं जानते। उनका खट्टा-मीठा फल अथवा विष-अमृत का पान तो मनुष्य को समयानुसार करना ही पड़ता है। उससे बच पाना किसी भी तरह से सम्भव नहीं है। जिसके विषय में मनुष्य जानता नहीं, उसके फल उसका पीछा नहीं छोड़ते। जो कर्म मनुष्य अनजाने में कर जाता है, वे भी उसके लिए जी का जंजाल बन जाते हैं। परन्तु जो कर्म वह जानते-बूझते या शेखी बघारते हुए करता है, उनसे वह किसी सूरत नहीं बच सकता, यह निश्चित है।
         इस प्रकार सारा जीवन मनुष्य इस संसार सागर का मन्थन करता रहता है। कभी अपने लिए विष की सौगात लेकर आता है तो कभी हलाहल विष अपने भाग्य में बटोरता है। अपने विवेक से विचार करके मनुष्य को अपने लिए मनचाहे मार्ग का चयन करना चाहिए ताकि किसी दूसरे को दोषी ठहराने की आवश्यकता न पड़े।
चन्द्र प्रभा सूद
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