गुरुवार, 28 मार्च 2019

अधिकार जताना

जीवन में जो कुछ भी मनुष्य को प्राप्त होता है, उस पर वह अपना हक समझने की भूल करने लगता है। उसे यह भी स्मरण नहीं रहता कि जो कुछ भी उसे मिल रहा है वह उसका हकदार हैं भी या नहीं। हर वस्तु पर वह अनाधिकार हक जमाने की चेष्टा करता है। उसके कुछ दायित्व भी होते हैं, इस विषय की ओर वह कान भी नहीं रखना चाहता। जो कुछ उसे अपने जीवन में मिलता है, उसे वह अपना मानने लगता है। यदि उसमें से कुछ कटौती की जाए तो वह उसका विरोध करने लगता है। जो कुछ उसे मिल जाता है, उसके लिए वह धन्यवाद भी नहीं करता।
         यहाँ प्रश्न यह उठता है कि सुख मिलने पर क्या कभी धन्यवाद देने मन्दिर गए हो? केवल दुख की शिकायत लेकर ही प्रभु के पास क्यों जाते हो? मालिक से क्या कभी किसी दुख या किसी पीड़ा की शिकायत के अतिरिक्त गए? क्या कभी उसे धन्यवाद देने के लिए सच्चे मन से पुकारा है?
          यदि इन सभी प्रश्नों का उत्तर नहीं है तो फिर यह विषय वास्तव में विचारणीय है। जो कुछ भी मनुष्य को मिलता है, उसके लिए वह प्रसन्न नहीं होता। बल्कि उसकी ओर पीठ करके खड़ा हो जाता है। इस कारण उसे जो कुछ मिल सकता है, उसे नहीं मिल पाता। उसके लिए दरवाजा बन्द हो जाता है।
           इस विषय पर कुछ उदाहरण देखते हैं। किसी व्यक्ति को असहाय जानकर प्रतिमाह उसे कुछ निश्चित राशि सहयोग के रूप में दी जाए तो यह बहुत पुण्य का कार्य मन जाता है। कभी ऐसा भी हो सकता है कि किसी कारणवश ऐसा सम्भव न हो सके। तब उस व्यक्ति को कहा जाएगा कि अब उसे वह राशि नहीं दे सकेंगे तो यह सुनकर वह आगबबूला हो जाएगा। इतने दिन तक सहायता करने के लिए धन्यवाद करने के स्थान पर वह गाली-गलौच करने लगेगा। ऐसा व्यवहार करेगा जैसे पता नहीं उसका कितना नुकसान कर दिया गया हो।
          अपने घर के बाहर फलवाला-सब्जीवाला या धोबी आदि कोई इस प्रकार का व्यक्ति है जो रेहड़ी लगता है, उस पर यदि तरस खाकर, बिना कोई किराया लिए उसका सामान अपने घर के किसी कोने में रखने की अनुमति दे दीजिए। कभी किसी कारण से शहर से दस-पन्द्रह दिन के लिए बाहर जाना पड़ जाए तो उसे समान रखने के लिए मना करने पड़ेगा। तब उसका मुँह बन जाएगा और दस बातें सुना देगा। यहाँ भी वही बात कि अपनी सहायता करने के लिए धन्यवाद नहीं करेगा। वह तो यहाँ तक भी कह सकता है कि घर की चाबी उसे दे दी जाए ताकि वह समान रख सके, अन्यथा वह परेशान हो जाएगा। यह किसी भी तरह सम्भव नहीं होता।
            जब कोई व्यक्ति बेरोजगार होता है या उसे नौकरी नहीं मिलती तो वह कम वेतन पर भी कार्य करने के लिए तैयार हो जाता है। उस समय उसे लगता है कि न होने से जो मिल जाए वही अच्छा है। नौकरी मिलते ही उसे अपने अधिकार याद आने लगते हैं। उसे अपना वेतन कम लगने लगता है। वह अपने पुराने कर्मचारियों से होड़ करने लगता है। दूसरों की बराबरी करने लग जाता है। फिर वह किसी मजदूर संघ का सदस्य बन जाता है और झण्डा लेकर खड़ा हो जाता है। ऐसा लगता है कि मानो वह कोई नकचढ़ा दामाद हो। उस समय उसे भूल जाता है कि नौकरी में वह कार्य करने आया है, मुफ्त की रोटियाँ उसे नहीं मिल सकतीं। यहाँ भी अपने मालिकों को धन्यवाद करने के स्थान पर उन्हें कोसता हुआ ही दिखाई देता है। मानो उन्होंने उसे नौकरी देकर कोई अपराध कर लिया हो।
          मनुष्य का यह जीवन उसे बहुत ही सुकृत्यों या सत्कर्मों के पश्चात मिलता है। उसके लिए मनुष्य अपने मन से ईश्वर की कोई सराहना नहीं करता परन्तु मृत्यु के लिए सदा उससे शिकायत करता रहता है। इसी प्रकार ईश्वर जब झोलियाँ भर-भरकर सुख और नेमते उसे देता है, तब उसके लिए वह मालिक का धन्यवाद नहीं करता। जब उसे अपने पूर्वजन्म कृत कर्मों के कारण दुखों और परेशानियों का सामना करना पड़ता है तो उसकी शिकायतों का पिटारा खुल जाता है। उस समय उसे उस मालिक की अच्छाइयाँ बिल्कुल नहीं दिखाई देतीं, तब उसे प्रभु समेत सारी दुनिया में खोट-ही-खोट दिखाई देने लगता है।
         इन्सान को इतना कृतघ्न नहीं होना चाहिए। दूसरों के लिए यदि वह राई जितना उपकार करता है तो उनसे वह पहाड़ जितने धन्यवाद की अपेक्षा करता है। जब अपनी स्वयं की बारी आती है तब पहाड़ जितने उपकार के बदले राई जितना कृतज्ञ होता है। उसे लेने और देने के बाट एक जैसे रखने चाहिए। उसे अधिकार और कर्त्तव्य दोनों को स्मरण रखना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail.com
Blog : http//prabhavmanthan.blogpost.com/2015/5blogpost_29html
Twitter : http//tco/86whejp

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें