शुक्रवार, 15 मार्च 2019

श्राद्ध की कथा

मनुष्य कितना भी अपनी वृत्तियों को सात्विक बना ले, अपने आचार-व्यवहार को शुद्ध बना ले, परन्तु उसकी एक गलती उसके विनाश का कारण बन जाती है। सारा जीवन मनुष्य स्वयं को साधता रहे, तभी अन्तिम समय में भी उसकी वृत्तियाँ सात्विक बनी रहती हैं, अन्यथा अन्तकाल में उसका मन सांसारिक विषयों में भटक जाता है। उसकी वृत्ति उसके पतन का कारण बन जाती है। इसीलिए मृत्यु के पथिक की वृत्ति को ईश्वर की ओर उन्मुख करने का प्रयास किया जाता है। ताकि इस भौतिक संसार से उसका ध्यान हटकर परमात्मा में लगे और उसे सद्गति प्राप्त हो।
           एक बोधकथा पढ़ी थी। इसमें मनुष्य की अन्तिम भौतिक कामना को पूर्ण करने के लिए उसे लकड़बग्घे का जन्म मिलता है। उसके श्राद्ध कर रहे पुत्र को एक सन्त ने सन्मार्ग दिखाकर उसकी आँखें खोल दीं।
          घूमते हुए एक सन्त उस स्थान पर पहुँच गए जहाँ कोई धनी व्यक्ति अपने पिता का श्राद्ध करने के लिए भण्डारा कर रहा था। सेठ ने उस सन्त का आदर-सत्कार किया।
         सन्त ने सेठ से पूछा, "सेठ जी! यह भण्डारा किस लिए कर रहे हो?"
         सेठ ने उत्तर दिया, "आज मेरे पिताजी का श्राद्ध है, इसलिए गरीबों के भोजन हेतु भण्डारा कर रहा हूँ।"
       सन्त ने उससे पूछा, "क्या आपके पिता जी जीवित हैं?"
        सेठ हँसते हुए कहने लगा, "महात्मा जी! आप कैसी बात कर रहे हैं? क्या आप नहीं जानते कि व्यक्ति का श्राद्ध उसकी मृत्यु के उपरान्त किया जाता है।"
        सन्त बोले, "परन्तु आपके पिता का इस श्राद्ध से क्या लेनादेना? यह भोजन जो आप गरीबों को खिला रहे हो, क्या गारंटी है कि यह आपके पिता को तो मिला है या नहीं। वह तो अब भी भूखा बैठा हुआ है।"
       सेठ ने आश्चर्यचकित होते हुए सन्त से पूछा, "आप कैसे कह सकते हैं कि मेरे पिता को भोजन नहीं मिला और वे भूखे हैं? मेरे पिता कहाँ हैं, क्या आप जानते हैं?"
       सन्त ने सेठ से कहा, "आपका पिता यहाँ से पचास कोस दूर जंगल में एक झाड़ी में बैठे हुए हैं। उन्हें लकड़बग्घे का जन्म मिला है।"
           तुमने इतने लोगों को भोजन करवाया ताकि वह भोजन तुम्हारे पिता को मिले। परन्तु वह तो कई दिनों से भूखा है। यदि मेरी बात पर विश्वास नहीं हो रहा तो जंगल में जाकर स्वयं अपनी आँखों से देख लो।
           सेठ ने सन्त से पूछा, "मैं यह कैसे जानूँगा कि वह लकड़बग्घा ही मेरे पिता हैं?
           सन्त ने आशीर्वाद दिया और कहा, "जब तुम जंगल में उसके सामने जाओगे तो मेरे आशीर्वाद से वह तुम्हारे साथ इन्सान की भाषा में बात करेगा।"
          अपनी जिज्ञासा को मिटाने के लिए सेठ जंगल में चला गया। वहाँ जाकर उसने देखा,एक लकड़बग्घा एक झाड़ी में बैठा था। सेठ ने उससे कहा- "पिता जी! आप कैसे हैं?"
            लकड़बग्घे ने जवाब दिया, "बेटा! मैं कई दिनों से भूखा हूँ। मेरे शरीर में बहुत दर्द है और बहुत तकलीफ हो रही है, इस दर्द के मारे मैं चलने-फिरने में भी असमर्थ हूँ।"
            सेठ ने आश्चर्य से लकड़बग्घे से पूछा, "पिताजी! आप तो बहुत नेक इन्सान थे, आपकी धार्मिक प्रवृत्ति जग जाहिर थी, आपने बहुत दान-पुण्य किया था, फिर आपको लकड़बग्घे की योनी क्यों प्राप्त हुई?"
          लकड़बग्घे ने जवाब दिया, "बेटा! यह सत्य है कि मैंने अपनी तमाम उम्र नेक और परोपकार कर्मों में बिताई। परन्तु मेरे अन्त समय में मुझे माँस खाने की इच्छा हुई। जिसके फलस्वरुप मुझे लकड़बग्घे का जन्म मिला।"
         इस प्रकार लकड़बग्घे से बातचीत करके सेठ जंगल से घर लौट आया और अपने परिवार सहित तुरन्त सन्त से मिला। सन्त से मिलकर नतमस्तक होकर सेठ उनसे कहने लगा, "आप पूर्ण पुरुष हैं।
आपने मेरा भ्रम दूर करके मुझ पर बहुत भारी अहसान किया है। अन्यथा मेरे पिता की ही तरह मेरा जीवन भी अकारथ चला जाता।
           इस पूरी चर्चा का सार यही निकलता है कि अनावश्यक रूढ़ियों के बोझ को उतारकर फैंक देना चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो अपने जीवनकाल में दान आदि कार्यों को कर लेना चाहिए। अपने जीवन को प्रभुमय बनाने का यथासम्भव प्रयास करना चाहिए। तभी अन्तकाल में मनुष्य की वृत्ति ईश्वरोन्मुख हो सकती है।
चन्द्र प्रभा सूद
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