सोमवार, 4 मार्च 2019

पति-पत्नी में सामञ्जस्य

पति-पत्नी में जब सामञ्जस्य होता है, तब उनके दुख-सुख सब साझे होते हैं। उनमें टेलीपैथी बन जाती है। यानी एक साथी के मन में जो भी विचार आता है, वह दूसरे साथी को बिनकहे पता चल जाता है। कितनी आदर्श स्थिति कहलाती है यह गृहस्थ जीवन की। ऐसे ही परिवारों को स्वर्ग की संज्ञा दी जाती है। यहाँ आने वाला हर व्यक्ति बहुत कुछ सीखकर जाता है। उसे जो अपनापन और प्यार ऐसे परिवार में मिलता है, वही उसकी पूँजी होता है। समाज में हर व्यक्ति ऐसे ही परिवार की परिकल्पना करता है, जो सबके लिए आदर्श बन सके।
          हमारी भारतीय संस्कृति के अनुसार पति और पत्नी का रिश्ता कुछ समय के लिए नहीं होता अपितु यह सात जन्मों का सम्बन्ध कहलाता है। इसमें विग्रह की कोई गुंजाइश नहीं होती। जीवन में माता-पिता कुछ समय तक साथ निभाते हैं। भाई एवं बन्धु सभी अपने-अपने परिवारों में व्यस्त रहते हैं। अपने बच्चे पढ़-लिखकर योग्य बनकर नौकरी के कारण देश में अन्यत्र या विदेश में कहीं जाकर बस सकते हैं। ऐसे समय में पति और पत्नी ही एक-दूसरे के सुख-दुख का सहारा बनते हैं। यदि दोनों में से कोई एक अस्वस्थ हो जाता है तो दूसरा साथी उसकी देखभाल के लिए बिना भार समझे, आपना कर्त्तव्य समझकर तत्पर रहता है। शेष सभी रिश्ते और नाते तो समयानुसार आते हैं। इस प्रकार मिल-जुलकर उनका कठिन समय सहजता से व्यतीत हो जाता है।
          कुछ पति और पत्नी परस्पर सम्बन्धों की गरिमा को बनाए रखने में चूक जाते हैं। सारा समय लड़ते-झगड़ते व्यतीत कर देते हैं। अपने गृहस्थ जीवन को नरक बना डालते हैं। उनके बन्धु-बान्धव उनसे दूरी बनाए रखते हैं। इसका कारण है कि इनमें किसी के पास भी बैठों वे एक-दूसरे की बुराई करते हैं, गाली-गलौज करते हैं। इसलिए इनके पास आने वाले व्यक्ति का मन व्यर्थ ही खिन्न होने लगता है। इस प्रकार अपनों से मिलने का उनका उत्साह ही समाप्त हो जाता है और वे उनसे किनारा करने में ही भलाई समझते हैं।
         इनमें से बहुत से पति औऱ पत्नी ऐसे हैं जो बड़े गर्व से कहते हैं कि उसने अपने साथी के साथ सालों से बात नहीं की। चाहे वह जिए या मरे, हमें उसकी रत्तीभर भी परवाह नहीं है। उनकी बात सुनकर समझ में नहीं आता कि इनकी प्रशंसा की जाए अथवा निन्दा। ऐसी स्थिति में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से एक-दूसरे को गाली देकर या टीका-टिप्पणी करके वे लोग अपने अन्तस् की भड़ास निकल लेते हैं। इनके पास आने वाले व्यक्ति को यह समझ में नहीं आता कि वह उनके घर, उनके पास करने क्या आया था?
           प्रायः इन परिवारों के बच्चे स्वार्थवश कभी अपने पापा का साथ निभाने लगते हैं और कभी अपनी माता का। जहाँ से उन्हें लाभ की प्राप्ति हो, वे उसी के हो जाते हैं। उसके बाद फिर उसी को छोड़कर दूसरे का साथ देने लगता हैं। ऐसे स्वार्थी बच्चे किसी के भी सगे नहीं होते। समय आने पर दोनों में से किसी एक का साथ देकर दूसरे को धोखा दे सकते हैं। इस तरह वे समय देखकर पासा पलटते रहते हैं। अपने माता या पिता किसी के भी सगे नहीं बनते। ऐसे बच्चों से क्या आशा रखी जा सकती है?
          इस पूर्ण विश्लेषण का उद्देश्य मात्र यही है कि पति और पत्नी एक-दूसरे के पूरक होते हैं, शत्रु अथवा विरोधी नहीं। उनमें परस्पर प्रतिस्पर्धा की भावना नहीं होनी चाहिए। उनका सामञ्जस्य ही उनके वैवाहिक जीवन का प्रमुख आधार होता है। इसीलिए इन्हें गृहस्थी रूपी गाड़ी को चलाने के लिए दो पहिए कहा जाता है। इस रिश्ते से पवित्र दुनिया में और कोई रिश्ता नहीं है। एक-दूसरे की मर्यादा का दोनों को ही ध्यान रखना चाहिए। संयम का अनुपालन करते हुए उन्हें जीवन में सदा आगे कदम बढ़ते रहना चाहिए। समय रहते इस रिश्ते में आने वाली खटास को मिटाने के लिए प्रयत्नशील बने रहना चाहिए।
          यह जीवन बहुत ही अनिश्चित है। दोनों में से कौन पहले इस असार संसार से विदा लेगा, इसके विषय में ईश्वर के अतिरिक्त किसी और को कुछ भी ज्ञात नहीं है। बाद में हाथ मलकर पश्चताप करने का कोई लाभ नहीं होगा। बस समय रहते जागरूक होने की आवश्यकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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