शुक्रवार, 8 मार्च 2019

सुख कैसे मिले?

सुख यानी दुख का अभाव होता है और दुख सुख न होने की स्थिति में होता है। सुख और दुख मनुष्य की मनोवृत्ति पर निर्भर करते हैं। जो व्यक्ति हर स्थिति में एक समान रहता है, सुख और दुख किसी भी अवस्था का प्रभाव उस पर अपेक्षाकृत कम पड़ता है। इसके विपरीत साधारण जन पर दुख अधिक समय तक हावी रहता है। वह समझना ही नहीं चाहता कि सुख और दुख समयानुसार उसके पास आते रहते हैं। वह यही चाहता है कि दुनिया के सभी सुख उसके हिस्से में आ जाएँ। दुख उसे न मिलकर किसी ओर के पास चले जाएँ।
          वाट्सएप पर कभी एक कथा पढ़ी थी, अच्छी लगी। लेखक का नाम उसमें नहीं लिखा था। उसे कुछ संशोधनों के साथ आपके साथ साझा कर रही हूँ।
          एक व्यक्ति ने अपने जीवनकाल में बहुत-सा धन अर्जित किया था। जितना धन उसके पास था, उसका उपयोग भी वह नहीं कर पा रहा था। मौत करीब आने लगी थी। न बेटे थे, न बेटियाँ थीं, कोई पीछे न था। उसका सारा जीवन धन बटोरने में बीत गया। वह तथाकथित महात्माओं के पास गया और आनन्द प्राप्ति का सूत्र बताने के लिए प्रार्थना की। महात्मा, पण्डित, पुरोहित, सब के द्वार खटखटाए पर जैसे ही खाली हाथ गया था, वैसे ही खाली हाथ लौट आया।
          किसी ने कहा कि एक सूफी फकीर को हम जानते हैं, शायद वह तुम्हारी कुछ  सहायता कर सके। उसके ढंग जरूर अनूठे हैं; इसलिए चौंकना मत। उसके रास्ते उसके निजी हैं; उसकी समझाने की विधियाँ भी थोड़ी बेढब होती हैं। जिनका कहीं कोई इलाज नहीं, उनके लिए सुनिश्चित उपाय यहाँ है।
          उस धनी ने एक बड़ी झोली हीरे-जवाहरातों से भारी और फकीर के पास गया। फकीर एक झाड़ के नीचे बैठा था। उसने उसके सामने जाकर झोली पटक दी और कहा, "इतने हीरे-जवाहरात मेरे पास हैं, परन्तु सुख का एक कण भी नहीं है। मैं कैसे सुखी रह सकता हूँ?"
         फकीर ने आव देखा न ताव, उठाई झोली और भागा। वह आदमी पलभर तो समझ ही नहीं पाया कि यह क्या हो रहा है? महात्मागण ऐसा नहीं करते। एक क्षण तो वह ठिठका रहा। फिर उसे होश आया कि इस आदमी ने तो उसे लूट लिया है, मेरी जिन्दगी भर की कमाई लेकर भाग रहा है। सुख की तलाश में आया था और दुःखी हो गया।
           उस फकीर ने उसे पूरे गाँव में चक्कर लगवा दिया। वह गाँव फकीर का जाना-पहचाना था, गली-कूचे से पहचान थी। कभी इधर से निकले और कभी उधर से निकल जाए। भीड़ भी पीछे हो ली। भीड़ फकीर से और उसकी विधि से परिचित थी।
           उस आदमी को तो कुछ पता नहीं था। वह कभी जिन्दगी में इतना भागा नहीं था और न ही कभी थका था। फकीर उसे भगाता हुआ, दौड़ाता हुआ, पसीने से लथपथ करता हुआ वापिस अपने झाड़ के पास लौट आया। वहाँ उसका घोड़ा खड़ा था। उसने थैली वहीं लाकर पटक दी और झाड़ के पीछे छिपकर खड़ा हो गया। वह आदमी लौटा तो उसने झोला पड़ा देखा और घोड़ा खड़ा देखा। उसने झोला उठाकर छाती से लगा लिया और कहा, "हे परवरदिगार परमात्मा! तेरा शुक्र है! तेरा धन्यवाद!"
         आज मुझ जैसा प्रसन्न इस दुनिया में कोई भी नहीं है। फकीर वृक्ष के उस तरफ से बोला, "कुछ सुख मिला? यही राज है। यही झोली तुम्हारे पास थी, इसी को लिए तुम फिर रहे थे और सुख का कोई पता नहीं था। यही झोली वापिस तुम्हारे हाथ में है। हे प्रभु, धन्यवाद तेरा कि आज मैं आह्लादित हूँ, आज पहली दफा आनन्द की थोड़ी झलक मिली। बैठो घोड़े पर और भाग जाओ, नहीं तो मैं झोली फिर से छीन लूँगा। अपने रास्ते पर चलो। रास्ता तुम्हें मैंने बता दिया।"
         एक व्यक्ति नहीं, सारा अस्तित्व ही ऐसा है। हम जिसे गँवाते हैं, तभी उसका मूल्य पता चलता है। जब तक गँवाते नहीं तब तक मूल्य पता नहीं चलता। जो मिला है, उसका मूल्य दो कौड़ी भी नहीं समझते। जो खो गया है, उसके लिए रोते फिरते हैं। जो खो जाता है, उसका अभाव खलता है।
           ईश्वर ने मनुष्य को बहुत अमूल्य जीवन दिया है, उसका हम सम्मान नहीं करते। न ही कभी दो घड़ी बैठकर उसका धन्यवाद करते हैं। जो जीवन में नहीं मिल सका, बस उसके के लिए सदा शिकवा-शिकायत करते हैं। इस सत्य पर कभी विचार नहीं करना चाहते कि सुख और दुख हमारे अपने कर्मों के भोग हैं। जैसे कर्म हम पूर्वजन्मों में करके आए हैं, वैसा ही फल इस जीवन में प्राप्त होता है। मात्र धन को ही सब कुछ या सुख मानने वालों को अन्ततः पछताना पड़ता है। सुख प्राप्ति के लिए परोपकार, दान आदि धर्म का पालन करना आवश्यक होता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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