सोमवार, 10 नवंबर 2014

जीवन-मृत्यु

जन्म व मृत्यु के बीच जीवन एक कड़ी है जीने के लिए। इसी प्रकार एक जीवन से दूसरे जीवन तक पहुँचने का सेतु मृत्यु है।
       पूरा जीवन संघर्ष करते हुए जब मनुष्य थक जाता है तब उसे आराम की आवश्यकता होती है। ईश्वर की ओर से उसे चिरनिद्रा का उपहार मिलता है। वह मृत्यु की गोद में जाकर सब दुख और परेशानियों से मुक्त हो जाता है।
      उसके सभी सांसारिक नाते व रिश्ते उसकी आँखें बंद होते ही समाप्त हो जाते हैं। इस भौतिक जगत के सभी संबंधी श्मशान तक ही साथ निभाते हैं उसके आगे जीव को अपनी यात्रा स्वयं तय करनी होती है। मृत्यु के पश्चात जीव अनंत यात्रा की ओर कदम बढ़ाता है निपट अकेले।
       उसके साथ जाते हैं सिर्फ उसके द्वारा किए गए अच्छे या बुरे कर्म जिन्हें उसने अपने जीवन भर कमाया है। उसके द्वारा कमाई गयी सारी धन-संपत्ति इसी संसार में ही छूट जाती है। जन्म-जन्मान्तरों में जो उसके शेष बचे सभी कर्म भी इस जन्म के कर्मों के साथ प्लस हो कर जाते हैं। कहने का तात्पर्य है कि उसके पूर्व जन्मों के कर्मों में से कुछ का भुगतान इस जन्म में करता है शेष उसके साथी बनकर साथ निभाते हैं।
         हमारी मान्यताओं के अनुसार इस जन्म में जो भी मनुष्य धन-संपत्ति बटोरता है मृत्यु के उपरांत सब यहीं छोड़कर जाता है। मनुष्य खाली हाथ इस संसार में आता है और खाली हाथ जाता है। उसके कफन में तो जेब भी नहीं होती जिसमें कुछ छुपा कर ले जाएगा।
       छल-फरेब, धोखाधड़ी, अत्याचार, अनाचार से कमाया गया धन किसी का हित नहीं कर सकता। जैसे वह कमाया जाता है वैसे ही उसका विनाश होता है। प्रकृति अपना प्रतिकार अवश्य लेती है।
          जिन परिवार जनों के लिए पाप की कमाई की जाती है वे किसी के पाप के भागीदार नहीं बनते तभी तो वाल्मीकि को ईश्वर की शरण में जाकर प्रायश्चित करके स्वयं का उद्धार करना पड़ा था। कितने ही महपुरुषों ने इसे समझा।
     अपने लोक और परलोक को सुधारने के लिए यथासंभव सत्याचरण करने में ही भलाई है। यह जन्म तो बीत ही रहा है पर मृत्यु के पश्चात अपने साथ ले जाने वाले कर्मों के विषय में विचार करना भी आवश्यक है।

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