बुधवार, 19 नवंबर 2014

ईश्वर का स्वरूप

मानव मन ईश्वर के स्वरूप के विषय में जानने के लिए हमेशा उत्सुक रहता है।हम सभी अज्ञानी हैं। जीवन पर्यन्त इस विषय की खोज में लगे रहते हैं। वेद, उपनिषद आदि ईश्वर की चर्चा बहुधा करते हैं उस पर किसी ओर दिन विचार रखेंगे।
       आज हम साकार और निराकार ब्रह्म के बारे में जानने का यत्न करते हैं। ईश्वर के रूप विशेष की कल्पना करके हम मूर्ति बनाकर उसकी उपासना करते हैं। उसकी नवधा भक्ति में लीन रहते हैं। इसे साकार ईश्वर की भक्ति कहते हैं। यह पूजा की पहली सीढ़ी है। किसी रूप विशेष में ध्यान लगाना सरल होता है। मन को वश में करने में सुविधा होती है।
      ईश्वर की बिना किसी आकृति के पूजा करना निराकार की उपासना कहलाती है। इस पद्धति में संध्या-वंदन किया जाता है। इसमें साधक निराकार ब्रह्म में ध्यान लगाता है। मन को वश में करने के लिए प्रयत्न करना होता है।
        ईश्वर के नाम का जाप दोनों ही प्रकार की उपासना में करते हैं। साकार या निराकार किसी भी पद्धति से ईश्वर की उपासना की जाए पर अंततः समाधि की अवस्था में केवल मात्र प्रकाश ही दिखाई देता है। वहाँ रूप प्रकाश में परिवर्तित हो जाता है।
    प्रकाश का दर्शन होने के बाद साधक अपना अनुभव किसी से बाँट नहीं पाता। ईश्वर प्राप्ति का यह आध्यात्मिक अनुभव हम किसी ग्रन्थ में नहीं पाएंगे। यह अनुभव गूंगे द्वारा खाए गए गुड़ जैसा होता है। वह उसकी मिठास अनुभव कर सकता है बता नहीं सकता। यह उदाहरण सटीक है क्योंकि ईश्वर यानि प्रकाश के प्रत्यक्ष दर्शन के पश्चात हमारी यह भौतिक जिह्वा उसका वर्णन नहीं करने में असमर्थ रहती है।
       ईश्वर के विषय में हमारे ग्रन्थ 'नेति नेति' कहकर मौन हो जाते हैं। कहने का अर्थ है- ईश्वर यह भी नहीं है, यह भी नहीं है अर्थात् वह हमारे इन भौतिक चक्षुओं की सीमा से परे है।
         ईश्वर की उपासना हम किसी भी विधि से करें पर मानसिक व शारीरिक शुद्धि आवश्यक है। इनको साधे बिना यह यात्रा अधूरी रहती है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें