गुरुवार, 20 नवंबर 2014

अति सर्वत्र वर्जयेत्

अति कभी भी अच्छी नहीं होती फिर वह किसी भी कारण से हो। कहते हैं-
अति भली न बरसना अति भली न धूप।
अति भली न बोलना अति भली न चुप॥
      यह दोहा हमें समझा रहा है कि यदि वर्षा अधिक होगी तो चारों ओर जलथल हो जाएगा। बाढ़ के प्रकोप जान-माल की हानि होगी। बीमारियाँ परेशान करेंगी। अनाज बरबाद होगा और मंहगाई बढ़ेगी। इसी तरह सूर्य के प्रकोप से चारों ओर गर्मी की अधिकता होगी। सूखा पड़ेगा और हम दाने-दाने के लिए तरसेंगे।
        दूसरी पंक्ति में कवि चेतावनी दे रहा है उन लोगों को जो बहुत बोलते हैं। अनावश्यक प्रलाप करते समय वे प्रायः मर्यादा की सीमा लांघ जाते हैं। उन्हें पता ही नहीं चलता कि वे न कहने वाली बात कह देते हैं जो झगड़े-फसाद का कारण बनती है। ऐसा व्यक्ति हवा में रहता है और झूठ-सच भी करता है। शुरू-शुरू में तो हो सकता है उसकी वाचालता अच्छी लगे परंतु कुछ समय बीतने पर वह भार लगने लगता है।
       इसके विपरीत बिल्कुल चुप रहने वाले को भी लोग पसंद नहीं करते। उसे घमंडी, अव्यवहारिक और न जाने क्या-क्या कहते हैं। यह सत्य है- 'एक चुप सौ सुख' या 'एक चुप सौ को हराए'। चुप रहना बहुत बड़ा गुण है। यह हमारे धैर्य व सहनशीलता का प्रतीक है पर अति चुप हमारा अवगुण बन जाता है।
        इसी प्रकार काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, धन लिप्सा, पद लालसा, आदर्शवादिता, सच्चाई, ईमानदारी, आग्रह-विग्रह आदि में से किसी भी गुण-अवणुण की अति बहुत दुखदायी होती है।
         हर गुण की जीवन में आवश्यकता है पर जब अति होकर वह हमारे लिए झंझाल बन जाए तो उसका त्याग करना चाहिए। क्योंकि- 'अति सर्वत्र वर्जयेत्' अर्थात् अति को हर जगह छोड़ देना चाहिए या यूँ कहें यथासंभव अति से बचना चाहिए।

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